मानव मन
चंचल बनकर उछल-उछलकर दूर – दूर तक जाता है।
मानव मन तू अस्थिर होकर डुलता- फिरता रहता है।।
पलभर के सुख के क्षण से तू खुब प्रफुल्लित होता है,
दुख आने पर मानव मन तू घुट-घुटकर क्यों रोता है।
अग्नि के धूम के जैसा तू तो दूर-दूर तक जाता है,
क्यों मानव मन सागर जैसा गहरा क्यों नहीं होता है।।
मित्र मिले या प्रिया मिले तब फूल के जैसे खिलता है,
फूल के जैसे कोमल होकर कांटे क्यों नहीं सहता है।
धरा के ऋतु परिवर्तन जैसा परिवर्तित क्यों होता है,
सुख-दुखदोनों एकभाव से क्यों तू क्यों नहींसहता है।।
सीख ले मानव मन तू उस गिरिराज हिमालय चोटी से,
अडिग खड़ा कैसे वो रहता शीत ग्रीष्म और वर्षा में।
तू तो आंख की नजर के जैसा बहुत दूर तक जाता है,
मानव मन तू वृक्ष के जैसा क्यों स्थिर नहीं रहता है।।
दुर्गेश भट्ट