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21 Nov 2024 · 1 min read

अबकि सावनमे , चले घरक ओर

अबकि सावनमे
चले घरक ओर,
माटि जतह आंगन बिछाए,
आ छप्परक छेन्हसँ चुएत बूंन्नी,
कहैत सभ पुरखा पिहानी।

तुलसी जत चउरी पर
जलैत दीपक बाती,
आ पाइनसँ भरल गलीक धूरि
स्मृतिक चादर बुनैत लोक ।

माँए मुँहेसँ सुने
ओ पुरान गीतनाद,
जेहन बरसाक रिमझिम,
जे मन केँ संगीतसँ भरि दैत ।

देख बगियामे आमक गाछ,
जे अहू काल झुलैत हेतै
नेनपनक सप्पन सन।
आ भेटब ओ डुपसँ,
जकर जगत पर बैसल
पहिल बेर देखने रही आकाश।

अबकि सावनमे
चले घर ओर,
जत बरखा माथ पर नहि बरसैत,
मुदा हृदयमे उतरि जाइत ।
जत हर कोना गूँजैत
स्नेहक धुन सँ,
आ हर गंधमे बसल
माटिक सौंध।

अबकि सावनमे
चले घर ओर,
किएक तँ ओ घर नहि,
हमर आत्माक द्वार ।

—श्रीहर्ष—-

Language: Maithili
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