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17 Oct 2024 · 1 min read

बिखर रही है चांदनी

कुण्डलिया
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बिखर रही है चांदनी, देखो चारों ओर।
सुन्दरता से भर गया, प्रकृति का हर छोर।
प्रकृति का हर छोर, सरोवर नदिया उपवन।
क्रीड़ारत हैं हंस, मोह लेते सबके मन।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, दिशाएं निखर रही है।
रजत किरण हर ओर, देखिए बिखर रही है।
~~~~
अति मनभावन दृश्य है, मन में जगे उमंग।
शरद काल की पूर्णिमा, धवल चांदनी संग।
धवल चांदनी संग, चान्द नभ पर आया है।
हंस युगल अब खूब, झील में भरमाया है।
लहर उठी हर ओर, हृदय का बढ़ता स्पंदन।
देख रहे सब लोग, चन्द्रमा अति मनभावन।
~~~~
अपने अपने ढंग से, सब करते संवाद।
और संस्मरण स्नेह के, कर लेते हैं याद।
कर लेते हैं याद, बात आगे बढ़ पाती।
इसी तरह से नित्य, जिंदगी बीती जाती।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, सत्य होते जब सपने।
बातचीत में खूब, सुनाते अनुभव अपने।
~~
हर प्राणी में आपसी, होते वार्तालाप।
और मिटा करते सहज, जीवन के संताप।
जीवन के संताप, जिन्दगी एक पहेली।
अनसुलझी हर बार, लगा करती अलबेली।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, भाव प्रकटाती वाणी।
निज भाषा संकेत, लिए रहता हर प्राणी।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
-सुरेन्द्रपाल वैद्य

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