28. बेघर
बेघर
अनजान सिंधु की लहरों पर कोई अनभिज्ञ मुसाफिर खड़ा है,
आशा के गोते खाकर ही तो जिंदगी भर बढ़ा है,
गांव के बूढ़े बरगद के नीचे नींद में बेसुध पड़ा है,
देर सवेर की उधेड़बुन में जैसे कोई बेघर।
आंख मिचौली खेलती सड़के शहरों की बढ़ती हलचल,
बाजारों में फिरता बेबस राही ढूंढता पनघट का जल,
दुआ का मारा दवा तलाशे खोकर जीवन का हर पल,
देर सवेर की उधेड़बुन में जैसे कोई बेघर।
घुमंतू उड़ता जंगल – जंगल बनकर जहां में मन का पंछी,
पेड़ों की ऊंची डालों के नीचे छुपकर बैठा है जैसे कैदी,
गिरते सूखे पत्तों का बसेरा बनाने आया गया सौ दफा,
देर सवेर की उधेड़बुन में जैसे कोई बेघर।।
@ राजीव दत्ता ‘ घुमंतू ‘