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22 Jul 2024 · 5 min read

मीनू

मीनू

दस साल की मीनू के कमरे में जब माँ आई तो उन्होंने देखा, मीनू सो गई है, उसका लैपटॉप अभी भी खुला था , बंद करने गई तो उनकी नज़र शीर्षक पर चली गई, लिखा था, ‘ दादाजी का स्कूल’ , वह हैरान हो उसे पढ़ने लगीं । उसे लेख कहूँ या कहानी, मुझे पता नहीं, पर वो कुछ इस प्रकार था ;

दो महीने पूर्व मेरी क्लास के बच्चे रवांडा जा रहे थे, गुरीला देखने के लिए, और वहाँ से कांगो का रेनफ़ारेस्ट देखने का कार्यक्रम भी था, यह मेरा स्कूल के साथ पहला अंतरराष्ट्रीय ट्रिप होता, परंतु तभी भारत से दादाजी का फ़ोन आया कि दादी बहुत बीमार हैं । पापा ने अपनी सारी मीटिंग कैंसल कर दी, और मम्मी ने मिनटों में टिकटें बुक कर दीं , और मैं इथोपियन ए्अर लाईनस की जगह एमिरेट के जहाज़ में बैठ गई । दादा दादी पिछले साल पूरे तीन महीने हमारे साथ यहाँ बोस्टन में बिता कर गए थे । दादाजी हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज थे, और तीन साल से अपने गाँव के पुश्तैनी घर में रह रहे थे । हम जब तक घर पहुँचे दादी जा चुकीं थी, वे अंतिम दर्शन के लिए हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । तब मैंने पहली बार मृतक शरीर देखा, और मुझे लगा, मृतक शरीर में भाव, बुध्दि , शक्ति, कुछ भी शेष नहीं रहता। दादाजी ने कहा,

“अग्नि पिता के साथ मीनू भी देगी, वह हमारी अगली पीढ़ी है । “ उस दिन माँ ने मुझे पहली बार अपने साथ सुलाया , पापा से कहा,

“ पता नहीं इस अनुभव का मेरी बच्ची की मानसिकता पर क्या असर पड़ेगा ! “

थोड़ी दूरी पर खड़े दादाजी ने यह बात सुन ली और हंसकर कहा, “ बहु जीवन के सबसे बड़े सत्य को बच्चे से छुपाकर रखना चाहती हो ? “

माँ ने जवाब नहीं दिया ।

अगले दो दिन मैं सोई अधिक और जागी कम । आख़िर जब मेरी नींद पूरी हो गई तो दादाजी मुझे घुमाने ले गए , हम देर तक पूरे गाँव के चक्कर लगाते रहे, दादाजी बताते रहे , “ यह कुम्हारों की बस्ती है, यहाँ बनिया रहते हैं , उस तरफ़ हरिजन रहते हैं, वे एक हाथ में मेरा हाथ पकड़ और दूसरे से अपनी लंबी बाँह फैला , पूरा ब्योरा देते जाते । घर के सामने एक बरगद का पेड़ था और उसके चारों ओर चबूतरा बना हुआ था, उन्होंने वहाँ रूक कर कहा, “ यह यहाँ की पंचायत है, वर्षों से तुम्हारे पुरखे यहाँ बैठ अपना न्याय देते आए हैं । “

मैं उनकी बात को समझ नहीं पा रही थी , न्याय, पुरखे , किसी में मेरी रूचि नहीं जाग रही थी । बस, मुझे उनका हाथ पकड़कर वहाँ खड़े होना अच्छा लग रह था ।

“ कल सुबह पाँच बजे नदी चलेंगे नहाने के लिए । “ उन्होंने घर आकर मेरा हाथ छोड़ते हुए कहा ।

मेरी माँ को यह सब अच्छा नहीं लगा, उन्होंने फिर पापा से शिकायत की , पापा ने कहा , “ अरे तुम उसे अकेले रवांडा भेजने के लिए तैयार हो गई थी, यहाँ तो यह हमारे गाँव की अपनी नदी है, फिर वह अपने दादाजी के साथ जा रही है, डर कैसा !

माँ को उतर नहीं सूझा तो उन्होंने यूँ ही मुझे अपने साथ चिपका लिया ।

दादाजी ने नदी में घुसने से पहले प्रणाम किया, संस्कृत के कुछ मंत्र बोले , फिर मुझसे कहा, “ आदर के साथ जाओ बेटा , तुम जितना पानी हटाती जाओगी, यह तुम्हें स्थान देती जायेगी , हमारे परिवार और इस नदी का नाता कई पीढ़ियों से है । “

तेरह दिन तक घर में पूजा पाठ होते रहे , तेरहवें दिन महाभोज हुआ, “उस दिन मैंने दादाजी से पूछा ,

“ अब आप इतने बड़े घर में अकेले कैसे रहोगे? “
दादाजी हंस दिये ,” अकेले कहाँ , पूरा गाँव है मेरे साथ, हम सब इस गाँव के बच्चे हैं । “

“ पर आप तो कह रहे थे, सबकी अपनी जाति है । “
“ हाँ तो क्या हुआ, अब तुम्हारे स्कूल में बच्चे अलग अलग कक्षाओं में है, लेकिन स्कूल तो सबका एक है न !“

“ जी दादाजी । “ मैंने हवा में थोड़ी छलांग लगा कर कहा था ।

माँ पापा पाँच दिन के लिए हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग आदि गए थे, अस्थि विसर्जन के लिए । शाम को दादाजी मुझे गाँव से बाहर ले गए, यहाँ नदी के पीछे पहाड़ थे , दादाजी ने कहा, “ देखो यह पहाड़ कैसे एक के ऊपर एक खड़ा हुआ है । “

“ सैडिमैंटरी राक्स “ मैंने अपना ज्ञान दिखाते हुए कहा ।
“ हाँ , तुमने पढ़ा होगा स्कूल में । “
“ हाँ राक्स फ़ार्मेशन पर मैंने पूरी डाक्यूमैंटरी देखी है। “
“ वैरी गुड । “ उन्होंने चट्टान पर बैठते हुए कहा । थोड़ी देर वे आकाश को लाल होते देखते रहे, फिर कहा , “ जिस तरह इस चट्टान में बदलते समय के कई सत्य छिपे हैं, वैसे ही हमारे मन में कई युगों के सत्य छुपे हैं, अपने उन सत्यों को पाने के लिए हमारे पूर्वज भी यहाँ इसी तरह आकर बैठे होंगे ।

मुझे उनकी बातों से ऊब होने लगी थी , और माँ पापा की याद आ रही थी ।

मैंने कहा, “ मुझे घर जाना है। “

रास्ते में हमें गोविंद कुम्हार मिला, दादाजी ने पूछा , “ क्यों भई , मेरा फूलदान बना कि नहीं ? “

“ कल पहुँचा दूँगा मालिक, दो बार पूरा बनते बनते टूट गया, इसलिए समय लग गया । “

पाँच दिन बाद जब माँ पापा लौटे तो मैं माँ से लिपट गई, मुझे बोस्टन की याद आ रही थी, जहां मेरा कमरा था, मेरा स्कूल था ।

गाँव छोड़ते हुए पापा ने कहा, “ जैसे ही वीसा मिले, आप चले आइये , अब आप अकेले मत रहिए यहाँ । “

दादाजी हंस दिये, “ जायदाद के काग़ज़ात देख लेते तो अच्छा रहता , जब तक हम इस गाँव का हिस्सा हैं, हमारे भीतर हमारी पहचान बनी रहेगी । “

“ जी बाबा, अगली बार ज़रूर उसके लिए समय निकालूँगा । “ उन्होंने दादाजी के पैर छुए और चल दिये ।

पापा दादाजी पर रोज़ ज़ोर देते हैं कि वे चले आयें , वे नहीं आयेंगे, यह बात मैं जानती हूँ, फिर पापा कैसे नहीं जानते ?

माँ ने उस लेख को पापा के व्हाटसैप पर भेज दिया, उन्होंने पढ़ा तो माँ से कहा“ हमें पता ही नहीं चला , मीनू कब इतनी बड़ी हो गई , और यदि बाबा को वहीं रहना है तो इसमें ग़लत क्या है, जहां आपको लगे, आप जीवन प्रवाह में बह रहे हो , वहीं ठीक है। “

माँ मुस्करा दी , और कहा, “ मुझे इसका शीर्षक अच्छा लगा, वो दादाजी का स्कूल ही तो था । “

दोनों मुस्करा दिये, और माँ ने बती बुझा दी ।

——शशि महाजन

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