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23 Jan 2024 · 1 min read

माटी

माटी
माटी तेरे
कितने रूप
कितने ही तेरे प्रतिरूप
अगणित गुणों को स्वयं समेटे
रंग तेरे काया अनुरूप
शून्य का पर्याय कभी तुम
जीव जगत का बनती आधार
तुमसे उपजे सकल जन जीवन
तुम में मिलकर होते इक रूप
तुम अंतिम सत्य
इस जीवन का
दंभी मानव मैं, मैं करता
जीवन यूं ही बीता सारा
मिलकर तुमसे
पुनः आकार
क्रोध दंभ से बीता जीवन
तुमसे मिल कर होता शीतल
धरातल पर फिर
रहना भी सीखा
उड़ देवों पर चढ़ना सीखा
तुम जैसे ‘ गर बन पाते
जीवन सार्थक
हम कर जाते
माटी तेरे गुणों को
‘ गर जीवन में अपना पाते
माटी होने से पहले हम
सच में जीवन जी पाते !!

1 Like · 245 Views
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