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18 Jul 2024 · 7 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: परिवर्तन (नाटक)
लेखक: पंडित राधेश्याम कथावाचक
संपादक: हरिशंकर शर्मा
231, 10-बी स्कीम, गोपालपुरा बायपास, निकट शांति दिगंबर जैन मंदिर, जयपुर 302018 राजस्थान
मोबाइल 9257446828 तथा 9461046594
प्रकाशक: वेरा प्रकाशन
मेन डिग्गी रोड, मदरामपुरा, सांगानेर, जयपुर 302029
राजस्थान
फोन + 91-9680433181
संपादित संस्करण: 2024
मूल्य: ₹ 249
—————————————-
समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
—————————————-
सात अनोखी बातें
🍃🍃🍃🍃
परिवर्तन नाटक बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित राधेश्याम कथावाचक की 1914 ईसवी की अपने आप में एक क्रांतिकारी कृति है। इसे पहली बार मार्च 1925 में न्यू अल्फ्रेड नाटक कंपनी ऑफ बंबई द्वारा पारसी थिएटर के रंगमंच पर दिल्ली में खेला गया था। नाटक वैश्याओं की समस्याओं को लेकर है। समाज में उनके प्रति दृष्टिकोण तथा प्रभाव को इसमें दर्शाया गया है। नए दौर में उस दृष्टिकोण में कैसा परिवर्तन आना चाहिए, इस प्रश्न को नाटक के द्वारा कथावाचक जी ने सुगढ़़ता से दिखलाया है।

नाटक में कुल सात अनोखी बातें हैं, जो नाटककार ने एक पात्र साधु स्वभाव के धनी नौकर शंभू के मुख से कहलवाई हैं। यह सात अनोखी बातें ही नाटक का सार है। सात अनोखी बातें नाटक की कथावस्तु के साथ-साथ उद्घाटित होती हुई चलती हैं ।

नाटक एक सात्विक सद्गृहस्थ के परिवेश में आरंभ होता है, जहां रामचरितमानस का पाठ हो रहा है। सद्गृहस्थ की पति-पत्नी बेटी नौकर सब निर्मल विचारों के हैं। लेकिन देखते ही देखते नाटक करवट लेता है और नाटक का नायक श्यामलाल एक वैश्या चंदा के रूप-जाल में फॅंस जाता है। यह कार्य भी सत्यनारायण की कथा के आयोजन के बहाने से एक दुराचारी व्यक्ति बिहारी लाल अंजाम देता है। फिर वैश्या चंदा के द्वारा श्यामलाल की संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र किया जाता है। जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हो जाती है। इसी बीच श्यामलाल की पत्नी एक पुरुष-योगी का रूप धरकर चंदा के घर पर जाती है और चंदा के द्वारा श्यामलाल की हत्या किए जाने के षड्यंत्र को विफल कर देती है। वैश्या चंदा को पुलिस पकड़ लेती है। अदालत में उस पर मुकदमा चलता है। इसी बीच वैश्या चंदा को अपने किए का पछतावा होता है। पश्चाताप की अग्नि में उसे पवित्र हुए देखकर लक्ष्मी उसे न केवल क्षमा करती है बल्कि अदालत में उसके लिए ज्ञानचंद नामक एक वकील को भी उतारती है। परिणामत: चंदा छूट जाती है। लेकिन अब वह पुरानी वाली वैश्या नहीं रही, देशभक्त समाजसेवी सरस्वती बन जाती है। इसके पीछे भी नाटक की लंबी उलट-फेर है। अंत में श्यामलाल और उसकी पत्नी लक्ष्मी का पुनः मिलन हो जाता है और अंततः समस्त वातावरण राष्ट्रीय तथा धार्मिक चेतना से ओतप्रोत हो जाता है। इसी के साथ नाटक समाप्त होता है।

पहली अनोखी बात नाटक में तब हुई, जब लक्ष्मी अपने नौकर शंभू से पूछती है कि वैश्या किसे कहते हैं ? तब शंभू कहता है कि आज आप यह कैसी अनोखी बात पूछ रही हैं ?
अभिप्राय यह है कि वैश्या के संबंध में चर्चा करना भी अच्छे घरों और समाज में निषिद्ध था। लेकिन लेखक ने इसी अनोखी बात से नाटक को शुरू कर दिया। (पृष्ठ 121)

दूसरी अनोखी बात तब हुई कि जब लक्ष्मी ने शंभू से कहा कि वैश्या में कोई न कोई गुण अवश्य होता है। (प्रष्ठ 122)
इस बात को रेखांकित करने के पीछे नाटककार का उद्देश्य पतित से पतित व्यक्ति में भी किसी न किसी गुण को ढूंढ निकालने की खोजवृत्ति है। वास्तव में कोई व्यक्ति गुणों से खाली नहीं है। यही दूसरी अनोखी बात है।

तीसरी अनोखी बात यह हुई कि वैश्या के गुणों को सीखने के लिए भले घर की भली स्त्री लक्ष्मी उस वैश्या के घर जाकर दासी के रूप में कार्य करने को तैयार हो गई और संकल्प लेती है कि वह उस वैश्या से वह गुण सीख कर आएगी, जिस गुण के कारण उसके पति उस वैश्या के प्रेमी हो गए हैं। (प्रष्ठ 123)

चौथी अनोखी बात यह हुई कि जिस वैश्या के कारण सारा परिदृश्य बिगड़ा, वही वैश्या जब पुलिस के चंगुल में फंस गई और रोने लगी तथा उसमें पश्चाताप की अग्नि में जलकर एक परिवर्तन आ गया। तब हृदय से अकलुषित हो चुकी उसके प्रति सद्गृहस्थ लक्ष्मी का प्रेम जाग उठा और उसने उसे अदालत से छुड़ाने का निश्चय लिया। यही चौथी अनोखी बात है। लक्ष्मी जो कि वियोगी-पुरुष का रूप धारण किए हुए है, उसने बताया कि चंदा के शरीर में परिवर्तन की चमक है। पश्चाताप की चिंगारी है और उसने अपने पाप-पूर्ण जीवन में अद्भुत परिवर्तन कर डाला है। (प्रष्ठ 161,162)

पॉंचवी अनोखी बात यह है कि नाटककार ने गुणों के आधार पर ‘चट मंगनी पट ब्याह’ की कार्यप्रणाली नाटक में दर्शायी है। सद्गुणों से भरा हुआ ज्ञानचंद वकील लक्ष्मी को अपनी पुत्री विद्या के लिए सर्वथा उपयुक्त लगता है और उसने यह देखे बगैर कि ज्ञानचंद के पिता एक दुराचारी व्यक्ति थे, अपनी पुत्री का विवाह ज्ञानचंद वकील के साथ करने का संकल्प कर लिया। यह पॉंचवी अनोखी बात थी।

छठी अनोखी बात यह हुई कि वैश्या चंदा अंत में संन्यासिनी बन जाती है। भगवा वस्त्र धारण करती है। हाथ में त्रिशूल लिए हुए है। अब वह कोई पतित वैश्या नहीं है बल्कि कन्या विश्वविद्यालय के स्वप्न को साकार करने के लिए यत्नशील राष्ट्रभक्त है। वह कहती है :
अब तो शिखा से नख तलक, बस एक ही लय हो/ जब तक हों प्राण देह में, इस देश की जय हो (प्रष्ठ 202, 204)

सातवीं अनोखी बात नाटक के नायक और नायिका श्यामलाल और लक्ष्मी का पुनर्मिलन है। इस तरह यह एक सुखांत नाटक है। (प्रष्ठ 217)
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मूल उद्देश्य समाज सुधार
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चुटीले और प्रवाहपूर्ण संवादों के साथ आगे बढ़ना नाटक की विशेषता है । नाटककार ने तत्कालीन प्रचलित भाषा में जो शब्द प्रयोग किए जाते थे, उनका भरपूर उपयोग अपने लेखन में किया है। अंग्रेजी भी खूब है और उर्दू शब्दों की भी कमी नहीं है । मूलतः नाटक हिंदी नाटक है और इसमें हिंदी की काव्य रचनाएं नाटककार ने स्थान-स्थान पर प्रयुक्त की हैं । इससे नाटक की प्रभावोत्पादकता काफी बढ़ गई है। नाटक का मूल उद्देश्य समाज सुधार है। वैश्याओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलना इसका ध्येय है। नाटककार ने दर्शाया है कि कोई स्त्री स्वेच्छा से वैश्या नहीं बनती। दुराचारी समाज ही उसे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए वेश्यावृत्ति की ओर धकेल देता है और नाना प्रकार के पाप उससे करवाता है।

लेखक की समाज-सुधारक दृष्टि नाटक के विभिन्न संवादों और विचारों में स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है। नायक श्यामलाल की पुत्री विद्या भी कोई कम समाज सुधारक नहीं है। उसने अपने पिता से कहा कि “जिन रुपयों से आप मेरे गहने गढ़़वाना चाहते हैं, उनसे एक ‘पुत्री पाठशाला’ खुलवा दीजिए। मैं भी वहीं पढ़ने जाया करूंगी और तमाम मोहल्ले की गरीब लड़कियां भी वहां तालीम पाएंगी।”

स्त्री-शिक्षा ‘परिवर्तन’ नाटक में बहुत मुख्य विषय के रूप में इंगित हुई है। जेवर पहनने के प्रति भी नाटककार ने अरुचि प्रदर्शित की है। नायिका की पुत्री विद्या के मुख से उसने कहलवाया है कि “बच्चों को गहने पहनाने का रिवाज है । इस रिवाज की बदौलत अपने गरीब भाइयों के बच्चों के साथ खेलते समय अपने को मालदार समझने का अभिमान आ जाता है।” (प्रष्ठ 96)
इतना ही नहीं, आभूषण पहनने का एक नुकसान विद्या यह भी बताती है कि कितने ही बड़े आदमियों के बच्चों को जेवर के लालच में पकड़ ले जाया करते हैं और जेवर हथियाने के बाद उनका गला घोंट डाला करते हैं। (पृष्ठ 97)
कहने की आवश्यकता नहीं कि आभूषणों की आड़ में पैसों की फिजूलखर्ची, मिथ्या अभिमान और जान के जोखिम के खतरे बताने के पीछे पंडित राधेश्याम कथावाचक की समाज सुधारक चेतना ही काम कर रही है।
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हास्य का पुट
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कई बार नाटक इतने गंभीर हो जाते हैं कि दर्शकों को उन्हें देखते हुए तथा पाठकों को पढ़ते हुए बोरियत हो जाती है। हास्य का पुट लेखन में जरूर होना चाहिए। पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटककार को यह गुण आता है। एक स्थान पर उनका पात्र कहता है -“बस हजूर ! अब आप मुझे गधा नहीं कह सकते। नौकर के साथ मलिक का ऐसा बर्ताव अब आउट ऑफ एटीकेट है।” (पृष्ठ 158)
अंग्रेजी के शब्दों के साथ इस संवाद से जो हंसी का फव्वारा अभिनयकार ने दर्शकों के बीच में पैदा किया होगा, उसकी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं।
दर्शकों को हॅंसाने अर्थात उनका मनोरंजन करने में कोई कसर न रह जाए, इसलिए नाटककार ने एक पूरा लंबा दृश्य(सीन) ही हास्य-रस से भरा हुआ रख दिया। इसमें रमजानी और माया के फैशनपरस्त आधार पर शादी तय होने का मनोरंजक दृश्य छोटे-छोटे संवादों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। पूरा दृश्य हॅंसी से भरा हुआ है।
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संपादक हरिशंकर शर्मा की भूमिका
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‘परिवर्तन’ नाटक का प्राण संपादक हरिशंकर शर्मा द्वारा नाटक के संबंध में विस्तृत भूमिका है। यह नव्वे पृष्ठ की है। इसमें पारसी थिएटर के शीर्ष में पंडित राधेश्याम कथावाचक की महत्वपूर्ण भागीदारी के बारे में बताया गया है। आगाहश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद बेताब के साथ पंडित राधेश्याम कथावाचक ने पारसी रंगमंच की त्रयी निर्मित की थी। पचास वर्ष तक कथावाचक जी पारसी थिएटर पर छाए रहे। भूमिका लेखक ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया है कि पंडित राधेश्याम कथावाचक ने वैश्याओं के संबंध में केवल सतही तौर पर नाटक लिखना आरंभ नहीं कर दिया। उन्होंने बाकायदा वैश्याओं की रीति-नीतियों का अध्ययन किया और इस कार्य के लिए उन्होंने वैश्याओं के कोठों पर सभ्यता का पाठ भी सीखा । यह अपने आप में बहुत साहस भरा लेखकीय दायित्व था।
कथावाचक जी न केवल नाटक लिखते थे बल्कि लाहौर के नाटक मंचन में आपको हारमोनियम लेकर बैठते हुए तथा लखनऊ में ‘परिवर्तन’ नाटक के शंभू दादा के पात्र-रूप में भी अभिनय करते हुए देखा गया। (प्रष्ठ 86)

पारसी थिएटर के प्रमुख स्तंभ मास्टर फिदा हुसैन नरसी कथावाचक जी के शिष्य थे । एक साक्षात्कार के हवाले से हरिशंकर शर्मा ने लिखा है कि ‘परिवर्तन’ नाटक की एक गजल स्वयं मास्टर फिदा हुसैन नरसी ने स्टेज पर गाई थी। वह गजल इस प्रकार है:

जाने क्या-क्या है छुपा हुआ, सरकार तुम्हारी आंखों में/ दीनो दुनिया दोनों का है, दीदार तुम्हारी आंखों में/ तुम मार भी सकते हो पल में, तुम तार भी सकते हो पल में/ विष और अमृत का रहता है, भंडार तुम्हारी आंखों में (पृष्ठ 83 एवं 181)
कुल मिलाकर पंडित राधेश्याम कथावाचक और उनका नाटक ‘परिवर्तन’ अपने दौर का परिदृश्य पर छा जाने वाला कला-लेखन कर्म था। अपने धारदार सामाजिक संदेश के लिए इन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।

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