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13 Jul 2024 · 6 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम:श्रवण कुमार (नाटक)
लेखक: पंडित राधेश्याम कथावाचक
संपादक: हरिशंकर शर्मा
231, 10 बी स्कीम ,गोपालपुरा बायपास ,निकट शांति दिगंबर जैन मंदिर, जयपुर 3 02018 राजस्थान
मोबाइल 925744 6828 तथा 946 1046 594
प्रकाशक : वेरा प्रकाशन , मेन डिग्गी रोड, मदरामपुरा, सांगानेर, जयपुर
संपादित संस्करण: 2024
मूल्य: 249
पृष्ठ संख्या 195
समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997 615 451
_________________________
“श्रवण कुमार” नाटक पंडित राधेश्याम कथावाचक द्वारा रचित महत्वपूर्ण कृति है। इस नाटक में कथावाचक जी ने भारत के एक अत्यंत प्राचीन प्रसंग श्रवण कुमार की पितृ-मातृ भक्ति को आधार बनाया है। नाटक धार्मिक सामाजिक और ऐतिहासिक है। इस नाटक के माध्यम से कथावाचक जी ने श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को प्रस्तुत किया है। सब प्रकार से माता-पिता की सेवा को ही महान ध्येय के रूप में प्रस्तुत करने में उन्हें सफलता मिली है।

नाटक की कथावस्तु श्रवण कुमार द्वारा अपने माता-पिता को कॉंवर पर बिठाकर तीर्थ यात्राएं करने के इर्द-गिर्द घूमती है। नाटक की शुरुआत में महाराज दशरथ के कुलगुरु वशिष्ठ ने श्रवण कुमार को अपने माता-पिता के अंधेपन को दूर करने का उपाय तीर्थो में भ्रमण करना बताया। श्रवण कुमार अपने माता-पिता के अंधेपन को दूर करने के लिए उन्हें कॉंवर पर बिठाकर तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़ता है। अनेक तीर्थ का भ्रमण करते हुए वह सफलता की ओर अग्रसर ही था, कि अयोध्या के राजा दशरथ के एक बाण ने श्रवण कुमार की जीवन-लीला समाप्त कर दी। इसके बाद महाराज दशरथ के विलाप करने का वर्णन नाटक में मिलता है। नाटक के अंत में महाराज दशरथ को यह श्राप मिलता है कि जिस तरह श्रवण कुमार के वियोग में उसके पिता शांत्वन ने प्राण त्यागे, इसी तरह दशरथ की भी मृत्यु पुत्र के वियोग में हो। श्रवण कुमार की माता ज्ञानवती ने भी दशरथ को श्राप दिया कि राजा का मृत शरीर भी अयोध्या में पड़ा रहे, ठीक समय पर दाह-संस्कार न हो।

श्रवण कुमार नाटक का उद्देश्य कथावाचक जी ने प्रारंभ में ही मंगलाचरण में स्पष्ट कर दिया है। नट और नटी के माध्यम से नाटक की भूमिका बांधते हुए उन्होंने कहलाया है:-

“चारों आश्रमों में श्रेष्ठ गृहस्थाश्रम का अभिनय रचाएंगे। पुत्र धर्म की शिक्षा और पति धर्म का उपदेश अपने देश के भाइयों और समाज की बहनों को देते हुए एक आदर्श पितृ भक्त का चरित्र दिखाएंगे। संसार के कपूतों को सपूत बनाएंगे।”
( प्रष्ठ 92)

तदुपरांत दो पंक्तियों में काव्य सृजन करते हुए कहते हैं :-

मुख्य कथा की कल्पना-द्वारा कर विस्तार/आज रचाएंगे प्रिये नाटक श्रवण कुमार
(पृष्ठ 92)

स्पष्ट है कि कथावाचक जी ने स्पष्ट शब्दों में जहां एक ओर इतिहास सम्मत कथा श्रवण कुमार नाटक के द्वारा प्रस्तुत की है, वहीं यह भी साफ कर दिया है कि नाटक के विभिन्न पात्र और उनकी गतिविधियां उन्होंने अपनी कल्पना से गढ़ी हैं। कल्पना शक्ति के समावेश के कारण श्रवण कुमार नाटक में लेखक को कतिपय हास्य प्रसंग तथा सामाजिक धार्मिक दोषों को इंगित करने में सफलता मिली है। नाटक में चंपक और चमेली ऐसे ही पात्र हैं । इनमें मातृ पितृ भक्ति नहीं है। यह केवल आपसी स्वार्थ में डूबे हुए पति-पत्नी हैं । इनके माध्यम से नाटक में हास्य रस की सृष्टि की गई है। स्थान-स्थान पर हास्य कविताएं नाटक में प्रस्तुत हो रही हैं ।
एक जगह पत्नी-भक्त चंपक कहता है:

गंगा यमुना सुरसती रामेश्वर हरद्वार
सब तीर्थों में श्रेष्ठ है एक चमेली नार
( प्रष्ठ 103)

कहने की आवश्यकता नहीं कि चंपक और चमेली नाटक में कल्पना से गढ़े गए पात्र ही हैं ।एक बाबा जी को ‘सटक नारायण’ कहकर नाटक में प्रस्तुत किया गया है। यह भक्तों को मूर्ख बनाने का काम करते हैं, जबकि इन्हें आता-जाता कुछ नहीं है। कथावाचक जी क्योंकि सिद्ध हस्त कवि भी हैं, अतः नाटक में वह ढोंगियों द्वारा की गई करतूत को उनके ही शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करते हैं:-

जटा बढ़ा के तिलक चढ़ा के, बाबा जी कहलाएंगे/ कान फूॅंक के हाथ देख के, माल मुफ्त का खाएंगे/ गांजा सुल्फा भांग पिऍंगे, घर-घर अलख जगायेंगे/ दुनिया के भोले भक्तों को, उल्लू खूब बनाएंगे (प्रष्ठ 105)

इस प्रकार के ढोंगी पात्रों का समावेश करके नाटककार ने अपने समय में चल रहे पाखंड को बेनकाब किया है। धर्म के नाम पर ढोंग और पाखंड पर प्रहार करना कठिन तो रहता है लेकिन यह जरूरी हो जाता है। कथावाचक जी ने तीर्थ में पंडों और पुजारियों के द्वारा भक्तों को जिस प्रकार से लूटा जाता है, उस पर नाटक के भीतर कलम चलाकर अपनी साहसिक भूमिका निभाई है। उन्होंने त्रिवेणी संगम पर श्रवण कुमार के साथ पंडों की लूट-खसोट को देखकर स्वयं यमुना नदी के मुख से यह कहलवाया है:-

” मेरे प्यारे पुजारियों! तुम्हारा धर्म है यात्रियों को सब प्रकार प्रसन्न रखना और जो कुछ वह श्रद्धापूर्वक दान दें ,उसी को संतोष के साथ स्वीकार करना। इसके विपरीत जो पंडे यात्रियों का दिल दुखाते हैं वे तीर्थ स्थान को कलंकित करते हुए अपना लोक और परलोक सब बिगाड़ते हैं।”
(पृष्ठ 142)

श्रवण कुमार नाटक के माध्यम से नाटककार को सब प्रकार की भक्ति से मातृ-पितृ भक्ति को श्रेष्ठ बताना है। इसी क्रम में वह काशी में विश्वनाथ मंदिर पहुंचकर श्रवण कुमार के माध्यम से माता-पिता की भक्ति की महिमा ही गाता है। काव्य पंक्तियों के माध्यम से नाटककार ने लिखा है:-

माता मेरी पार्वती हैं पिता मेरे त्रिपुरारी/ युगल चरण पंकज पर जाऊं जन्म-जन्म बलिहारी
(प्रष्ठ 155)

इस क्रम में पुजारी के द्वारा माता-पिता की भक्ति को सर्वश्रेष्ठ बताने पर जब आपत्ति की जाती है और विवाद बढ़ता है तब नाटककार ने स्वयं भगवान विश्वनाथ के मुख से माता-पिता की भक्ति की महिमा गाई है। लिखते हैं:-

” नि:संदेह संसार में मातृ-पितृ भक्ति ईश्वर भक्ति के समान है। जाओ श्रवण कुमार, तुम्हारी यात्रा सफल हुई और इस शास्त्रार्थ में तुम्हारी विजय हुई।”
( पृष्ठ 158)

हरिशंकर शर्मा की भूमिका महत्वपूर्ण

आजकल के जमाने में श्रवण कुमार नाटक को प्रकाशित करना व्यावसायिक दृष्टि से घाटे का सौदा है। अब न नाटक खेले जाने का माहौल है और न इन लंबे नाटकों को पढ़ने का पाठकों का धैर्य है। लेकिन हरिशंकर शर्मा ने मानो पंडित राधेश्याम कथावाचक के लेखन कार्य का कोना-कोना उजागर करने का व्रत ले रखा है। आपके प्रयासों से यह नाटक नए संस्करण में संपादित रूप से पाठकों के सामने आया है। भूमिका के रूप में पुस्तक के प्रारंभिक छियासी पृष्ठ नाटक के इतिहास और पंडित राधेश्याम कथावाचक के योगदान का विस्तृत विवरण पाठकों के लिए प्रस्तुत करते हैं। इनका पढ़ना नाटकों के ऐतिहासिक लेखन-क्रम को जानने के लिए बहुत जरूरी है।
आज किसी को भी यह बात अटपटी लगेगी, लेकिन हरिशंकर शर्मा लिखते हैं:-
“कथावाचक के नाटकों के प्रचार हेतु ग्रामोफोन रिकॉर्ड बजते पोस्टर-बैनरों की बारात निकलती थी।”
(पृष्ठ 61)

भूमिका-लेखक यह जानकारी भी उपलब्ध कराई कि श्रवण कुमार नाटक 1914 – 15 ईस्वी का लिखा हुआ है तथा 1928 ईस्वी में जब यह मंच पर खेला गया तो उसे देखने के लिए महात्मा गांधी और मदन मोहन मालवीय आदि देश के शीर्ष राजनेता पधारे थे। सन 1960 में श्रवण कुमार नाटक की कथा को लेकर एक फिल्म भी बनी।
नाटक खेले जाने की दृष्टि से पारसी थिएटर पर हरिशंकर शर्मा ने विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार 1850 से 1950 ई तक का समय पारसी थिएटर का रहा। इसमें आगा हश्र कश्मीरी से लेकर मास्टर फिदा हुसैन नरसी तक छाए हुए थे। पंडित राधेश्याम कथावाचक के बारे में भी आपका कथन है कि वह लगभग पचास वर्ष तक पारसी थिएटर के सिरमौर बने रहे।

इसमें संदेह नहीं कि नाटक मूलतः रंगमंच पर खेले जाने के लिए ही लिखे जाते हैं। पंडित राधेश्याम कथावाचक का श्रवण कुमार नाटक भी इसीलिए अत्यंत व्यावहारिकता लिए हुए है। इसमें गाना-बजाना, हास्य और गंभीर रस तथा पौराणिक भावनाओं की पुष्टि के साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक सुधार के स्वर भी अत्यंत बलवती हैं । एक साहित्यिक कृति के रूप में भी श्रवण कुमार नाटक कालजयी कहा जाएगा। तभी तो सौ वर्ष से ज्यादा पुराना होने पर भी पढ़ने की दृष्टि से इसका नयापन ज्यों का त्यों चमकता हुआ देखा जा सकता है।

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