तुझको लिखूं की मैं खुद को संवारू

तुझको लिखूं की मैं खुद को संवारू
कागज पर तुझको मैं कैसे उतारू
वो ऑंखें वो बिंदी वो होठों की लाली
वो घूँघराले कुंतल बड़े नैन वाली
वो चेहरे की रौनक़ थी बातें जो मीठी
उसका आलिंगन था जैसे अंगीठी
वादे पर वादा किया मैंने ज्यादा
था मेरा इरादा ना उसका इरादा
उसकी छुअन जैसे शीतल हवाएँ
जैसे ठहरती हों चारों दिशाएं
काजल को उसके था स्याही बनाया
लिखा जी भर कर मैं उसको मनाया
वो रूठी है अब तक है मुझको पता
क्या लिखना ही गलती है मेरी बता
पन्ने भी कहते हैं बस कर ना भाई
अब जाने भी दे छोड़ उसकी बड़ाई
मौत भी मुझको उसी दिन आएगी
कलम मेरी जिस दिन लड़खड़ायेगी
~ धीरेन्द्र पांचाल