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30 May 2024 · 1 min read

विवाहित बेटी की उलझन

विवाहित बेटी की उलझन

खुद को हारा सोचती,
पाती हूँ लाचार ।
उठा न पाऊँ फोन मैं,
हों पापा बीमार।।

बहन , बहू , पत्नी बनी,
माँ बन सींचा प्यार।
पर बेटी के रूप में ,
सदा गई मैं हार।।

थी, छोटी रोती बहुत
होते गीले गाल।
सीने में भींचें मुझे,
और सहलाएं भाल ।।

उनके मन की विवशता,
कुछ , अँसुवन का भार।
जा न सकी , मैं बाँटने ,
पछताती हर बार।

रहूँ दौड़ती, मैं यहाँ,
सुनकर , हर आदेश ।
सौ नखरे , करती वहाँ,
था वह, मेरा देश।

पापा सब कुछ छोड़कर,
आन बैठते , पास,
काम करूँगा बाद में,
बिटिया सबसे खास ।।

उनके , चौथे फोन पर ,
हँस कहती हूँ, आज ।
उलझ गई थी, मैं जरा,
मुझको, हैं सौ काज ।।

बचपन वाले , वस्त्र हों,
रंग उड़ी , तस्वीर ।
सीने से , उसको लगा ,
कहते हैं , जागीर ।।

मेरा मन तो, बँट गया ,
टुकड़े-टुकड़े, आज ।
किंतु तुम्हारे, हृदय पर,
अब भी मेरा, राज ।

कल आऊँगी , मैं वहाँ,
सुनकर , इतनी बात।
दौड़ पड़े, बाजार को,
लेकर, थैली हाथ ।

अम्मा, पूरी तल रही ,
और बनाती खीर।
आज, लाड़ली आएगी,
नयन, खुशी का नीर।

वे होते, बीमार जब,
मुश्किल में, बेज़ार ।
पहुँच न पाती, वक्त पर,
मैं जाती हूँ हार ।।

नम, गीली आँखें लिए,
व्याकुल, विव्हल प्रीत।
करते हैं, मुझको विदा ,
बेटी, जग की रीत।।

हृदय तोड़ता, सरहदें ,
करता है, चीत्कार ।
मैं, बिटिया के रूप में ,
हर पल जाती, हार।

इंदु पाराशर

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