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3 Nov 2023 · 5 min read

समीक्ष्य कृति: बोल जमूरे! बोल

समीक्ष्य कृति: बोल जमूरे! बोल
कवि : उमेश महादोषी
प्रकाशक: लक्ष्मी पेपर बैक्स, दिल्ली-94
पृष्ठ-60
प्रथम संस्करण- जून 2023

आकर्षक शीर्षक ‘बोल जमूरे! बोल’ बरबस ही पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। कृति को पढ़ने की लालसा जाग्रत होती है। यह एक काव्य कृति है। इसमें कवि ने 2011 से 2023 के मध्य रचे गए 152 छंदों को समाहित किया है। यह कृति एक नवीन छंद, जिसका नाम ‘जनक’ है,से हमारा परिचय कराती है। इस नवीन छंद के प्रणेता स्मृतिशेष डाॅ ओमप्रकाश भाटिया ‘अराज’ जी हैं।महादोषी जी ने इस कृति को उन्हीं को समर्पित किया है। आशीर्वचन के रूप में ‘अराज’ जी ने महादोषी जी के जनक छंदों पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्हें दो छंदों के संबंध में सुझाव भी दिए हैं जिसमें छंद 18 में किंचित परिवर्तन का उल्लेख किया है तथा छंद 21 के तुक को पूर्णतः शुद्ध माना है। संभवतः महादोषी जी ने छंद -21 के तुक को लेकर ‘अराज’ जी से सुझाव माँगा होगा।

जनक छंद के तुक के संबंध में अराज जी ने लिखा है- अतुकांत को सरल छंद कहते हैं। पहली और तीसरी पंक्ति की तुकांतता को शुद्ध जनक छंद माना है।यदि तीनों पंक्तियों में तुकांत का निर्वाह होता है तो उसे घन जनक छंद के रूप में परिभाषित किया है। तुकांतता के अराज जी के उपर्युक्त विवेचन के आधार पर जब हम इस कृति के छंदों को परखने की कोशिश करते हैं तो ज्ञात होता है कि संपूर्ण कृति में एक भी सरल छंद नहीं है।अवलोकन करने पर पता चलता है कि कृति में 142 छंद शुद्ध जनक हैं और 10 छंद ‘घन जनक’ छंद।

पुस्तक के छंदों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह तीन चरणों का एक छंद है।इस छंद के प्रत्येक चरण में 13 मात्राएँ हैं। तेरह मात्राओं का प्रत्येक चरण दोहे के विषम चरण के रूप में है अर्थात जनक एक मात्रिक छंद है, जिसमें तीन चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं।प्रत्येक चरण एक-दूसरे से अलग भी होता है और भाव की दृष्टि से संगुम्फित भी। यह बिल्कुल हायकु छंद की तरह होता है। दोहे के विषम चरणों की तरह होने के कारण इसमें कलों का प्रयोग ठीक दोहे के जैसा ही होता है तथा चरणांत में रगण ( ऽ।ऽ ) तथा नगण (।।। ) अथवा नगण + दीर्घ (।।।+ ऽ) का प्रयोग होता है।

राजा जी क्या बात है!

पिचके पेट बुला रहे

भरा कटोरा भात है।9- स्पष्ट है कि इस छंद में चरणांत में रगण (ऽ।ऽ) का प्रयोग है।

वीर शहीदों को अगर।

देना है सम्मान तो

भ्रष्टों से तू कर समर।45 – इस छंद के प्रथम और तृतीय चरण में नगण ( ।।।) का प्रयोग किया गया है।

एक पेड़ पर फल लगे।

कोई कहता जहर ये

कोई अमरित सा चखे।114 – इस छंद के प्रथम और द्वितीय चरण में नगण+ दीर्घ (।।।+ऽ) का प्रयोग है।

कृति का आरंभ ‘बोल जमूरे बोल ना!’ से हुआ है जो कि कृति का एक तरह से मंगलाचरण जैसा है जिसमें कवि ने जीवन में रस घोलने की प्रार्थना की है। आज हर व्यक्ति के जीवन में खुशियों का अभाव है और जब तक ऊपर वाला कोई चमत्कार नहीं करता तब तक व्यक्ति भौतिकता के पीछे ही भागता रहेगा और जीवन की शांति खोता रहेगा।

बोल जमूरे बोल ना!

दिखला कोई खेल तू

जीवन में रस घोल ना!

कृति के अंत में भी महादोषी जी ने जमूरे को याद किया है परंतु अंतिम छंद में कवि की पीड़ा जाति, धर्म, भाषा एवं अन्यान्य आधारों पर हो रहा देश का बँटवारा है। किसी भी राष्ट्रप्रेमी जागरूक नागरिक के लिए समसामयिक विभेदकारी परिस्तिथियाँ विचलित करेंगी जो देश की सामासिक संस्कृति की खूबसूरती को ग्रहण लगा रही हैं।

बँटा देश जीवन बँटा।

देख जमूरे देख ना!

बँटी-बँटी है हर छटा।

कई बार व्यक्ति की आवाज़ ,उसकी वाणी की मधुरता से प्रभावित हो जाते हैं जो हमारे लिए बेहद घातक सिद्ध होता है। हमें व्यक्ति को पहचानने की चेष्टा करनी चाहिए। मीठी वाणी किसी पर विश्वास करने का आधार नहीं हो सकती। यदि धोखे से बचना है तो इस छंद को ध्यान में रखना चाहिए-

कोयल की आवाज-सी,

मुख से बोली फूटती

शक्ल दिखे पर बाज-सी।

सामाजिक समस्याओं की ओर कवि का ध्यान तो गया ही है, जो कि किसी कवि प्राथमिक जिम्मेदारी होती है किंतु इसके साथ प्रकृति का चित्रण भी किया है। शीत ऋतु की ठंड की भयावहता को दर्शाने के लिए कवि ने सर्वतः नवीन उपमान मुस्टंड का प्रयोग किया है।

दाँत भिचाती ठण्ड है।

पकड़ दबोचे टेंटुआ

ज्यों कोई मुस्टण्ड है।

प्रातःकालीन गुनगुनी धूप स्वास्थ्य के लिए संजीवनी होती है। महादोषी जी का छंद जो कि हमें स्वास्थ्य के प्रति न केवल जागरूक कर रहा है अपितु प्रातःकालीन धूप का एक बिंब भी प्रस्तुत करता है।

धूप सुबह की गुनगुनी

तन-मन की पीड़ा हरे

स्वस्थ रखे संजीवनी।

देश की राजनीतिक परिस्थितियों से कोई भी अछूता नहीं रहता। जब हम किसी एक दल की सरकार को जन आकांक्षाओं पर खरी न उतरने पर राजनीतिक बदलाव करते हैं तब भी हमारे सपनों को पंख नहीं लग पाते।जनता पर होने वाले जुल्म कम नहीं होते।चेहरे बदलते हैं पर नेताओं और नौकरशाहों की कार्यशैली नहीं।

सत्ता बदली पर नहीं।

बदला सत्ता का हिया

जुल्म आज भी कम नहीं।

महादोषी जी की इस कृति का प्रत्येक छंद किसी न किसी सामाजिक विसंगति और विद्रूपता को उद्घाटित करने के कारण उद्धरणीय है।अलंकारिकता, लाक्षणिकता, नवीन उपमानों का प्रयोग तथा बिम्बात्मकता कवि के लेखन की एक ऐसी विशेषता है जो उनके लेखन को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं।विचारों की गहनता एवं चिंतन की गूढ़ता से युक्त भाव, प्रांजल भाषा इस कृति को पठनीय एवं संग्रहणीय बनाते हैं।बोल जमूरे बोल! जैसी उत्कृष्ट कृति निश्चित रूप से हिंदी काव्य-जगत में अपना यथेष्ट स्थान प्राप्त करेगी और सुधी पाठकों तथा विषय-मर्मज्ञों द्वारा समादृत होगी।

गूढ़ भाव की भव्यता।

हिंदी के आकाश में,

जनक छंद की नव्यता।

‘बोल जमूरे! बोल’ के संबंध में कुछ बातें जो एक पाठक के रूप में खटकीं, का उल्लेख भी आवश्यक हो जाता है।

1.कृति में छंद के शिल्प के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। न ही छंद के प्रणेता ‘अराज’ जी ने अपने आशीर्वचन में और न महादोषी जी ने आत्मकथ्य में अथवा अन्यत्र किसी स्थान पर छंद विधान का कोई उल्लेख है। यह एक खटकने वाली बात है। यदि कोई नवोदित कवि छंद के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहे, तो वह कैसे प्राप्त कर सकता है ?

2. न के स्थान पर ना का प्रयोग, जो संभवतः मात्रा पूर्ति के लिए किया गया है। हिंदी ना कोई शब्द नहीं है। हाँ, उर्दू में ना उपसर्ग अवश्य है, जिससे नाउम्मीद, नालायक जैसे शब्द निर्मित होते हैं।

3.छंद 18 में आदरणीय अराज जी के निर्देशानुसार मेरा को मात्रा गणना के अनुसार ‘मिरा’ कर देना ,हिंदी व्याकरणानुसार नहीं है। अन्य तरह से भी परिमार्जन किया जा सकता था।

4. वह और वे जैसे सर्वनाम के लिए ‘वो’ का प्रयोग उचित नहीं लगता है। आम बोलचाल में तो ‘वो’ का प्रयोग सही ठहराया जा सकता है पर लेखन में वर्ज्य होना चाहिए।

डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की ( हरिद्वार)
उत्तराखंड-247667

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