Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
21 Sep 2023 · 5 min read

■ हिंदी सप्ताह के समापन पर ■

#विशेष_आलेख

■ एक ज़िला श्योपुरः जहां साहित्य का अर्थ है मात्र तुकबंदी
◆ विमर्श और विविध विधाएं सदैव से गौण
◆ संरक्षण व सहयोग का भरपूर अकाल
【प्रणय प्रभात / श्योपुर】
एक समय तक साहित्य नगरी के रूप में चर्चित श्योपुर में साहित्य का अभिप्राय मात्र तुकबंदी रह गया है। फिर चाहे वो गीत हो, कविता हो या मिलता-जुलता कुछ और। बात भले ही चौंकाने वाली हो, मगर सौलह आना सच है। आश्चर्य इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि यहां मुक्त व आधुनिक कविता को स्वीकार नहीं किया जाता। जबकि इस नगरी को मान्यता व प्रसिद्धि प्रयोगवाद के जनक महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्मस्थली के रूप में है। जी हां, अज्ञेय कृत तार-सप्तक के वही अग्रगण्य कवि मुक्तिबोध, जिनकी कविता ना कभी तुकांत पर आश्रित रही। ना ही विचार, विमर्श और सामयिक संदर्भो से विमुख। यह अलग बात है कि अलग सी धारणा और सृजन शैली के बाद भी सृजन व रचनाधर्मियों की व्यापकता ने नगरी को समूचे अंचल में पहचान व प्रतिष्ठा दिलाई। दशकों तक सक्रिय व समर्पित रचनाकारों ने नगरी को साहित्य जगत में स्थान दिलाने का काम किया। ज़िले के गठन से पूर्व तक सृजन व आयोजन की एक अच्छी परम्परा नगरी को प्रतिष्ठा व पहचान दिलाती रही। इसके बाद लगभग एक सदी की सशक्त सृजन परंपरा उपेक्षा व असहयोग की भेंट चढ़ गई। साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक गोष्ठियों का चलन समाप्त हो गया। रचनाकारों की स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा षड्यंत्रों के कुचक्र में बदल गई। विमर्श और विचार तो दूर पारस्परिक संवाद तथा संपर्क तक की भावना का लोप हो गया। संस्थाओं व संगठनों के नाम पर मानस में हिलोरें मारती दुरभि-संधि ने प्रेम, सद्भाव, एकता और समरसता के संवाहकों को पर्याय अथवा पूरक के स्थान पर धुर-प्रतिद्वंद्वी बना कर रख दिया। रही-सही कसर शासन-प्रशासन सहित क्षेत्रीय समाजों व संगठनों ने पूरी कर दी। जिन्होंने काव्य परम्परा के प्रति असहयोग, उदासींनता व अरुचि का परिचय दिया। मंचीय आयोजनों की परंपरा अतीत की भूल-भुलैया में कहीं खो गई। सरस्वती के साधक भगवान गणपति के आशीष से वंचित हुए। लक्ष्मी की चाह लिए कोरे स्वप्न संजोने की होड़ में कहीं के न रहे। होने को तो सृजक और सृजन अब भी है। उपलब्धि के नाम पर पूर्णतः शून्यता के बीच अलग-थलग। स्थानीय श्री हजारेश्वर मेले के पावन रंगमंच को विदूषकों का अखाड़ा बना दिया गया है। जहां वर्ष में एक बार होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के भाग्य और भविष्य का निर्धारण ठेका पद्धति से होता है। परिणामस्वरूप भारी-भरकम मद लुटा कर भी नगरपालिका रसज्ञ श्रोताओं को काली रात से अधिक कुछ नहीं दे पाती। क्षेत्रीय स्तर के बाहरी मठाधीश मध्यस्थ बन कर प्रति वर्ष आयोजन का चीर-हरण नियत करते हैं। देश के शीर्षस्थ वाणीपुत्रों की चरण-रज से दशकों तक कृतार्थ मंच छुटमैयों की द्विअर्थी वाचालता, उत्तेजक संवाद और अनर्गल छींटाकशी से आहत प्रतीत होता है। वर्ष में गणतंत्र और स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या नगरपालिका भवन में होने वाले आयोजन कथित जनसेवकों की इच्छा पर निर्भर हो चुके हैं। उनका स्थान होलिका दहन की रात हास्य के नाम पर होने वाली फूहड़ता ने ले लिया है। दो दशक तक राष्ट्रभाषा हिन्दी दिवस समारोह के नाम पर चर्चाओं में रही सार्थक और उद्देश्यपरक आयोजन परंपरा आयोजको के साथ कालातीत हो चुकी है। देश के विपक्षी दलों की तरह समय-समय पर गठित-विघठित संस्थाएं अस्तित्व में होकर भी अस्तित्वहीन हैं। गहन अंधकार में काले कोयले की भांति। वैयक्तिक स्तर पर अपनी जीवंतता का दम्भ भरने वाले मुट्ठी भर लोग अब भी अपने अपने मोर्चे पर सक्रिय हैं। जिन्हे अकर्मक व सकर्मक क्रिया के भेद से परिचित कराने का काम संभवतः समय ही करेगा। स्वाधीनता के समर काल से पूर्व सृजन साधना करने वाले लगभग चौथाई सैकड़ा साहित्यकारों के सृजन को समय की दीमक चाट चुकी है। तमाम पृष्ठ अगली पीढ़ी की उपेक्षा के कारण नष्ट होने की कगार पर हैं। स्वतंत्रता के अमृत वर्ष तक नगरी के किसी एक साधक पर सत्ता-पोषित अकादमी या पीठ कृपादृष्टि से अमृत की एक बूंद नहीं टपका पाई है। महाकवि मुक्तिबोध की विरासत मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजधानियों तक सिमट कर रह गई है। जिसे विरासत का बलात अधिग्रहण भी कहा जा सकता है। श्योपुर को असीम संभावनाओं व प्रयासों के बाद भी इस विरासत का भाग तो दूर, दर्शन तक नहीं मिला है। वैचारिक और विषयवस्तु आधारित विमर्श की परंपरा से वंचित और अनभिज्ञ नई पीढ़ी तुकबंदी और मंचीय नौटंकी को साहित्य संसार का सार मानकर बलिहार है। अपने पंख, अपनी उड़ान जैसे प्रयासों पर दिशा सहित वायु वेग के प्रति नासमझी धूल डालती आ रही है। मिथकों और वर्जनाओं के विरुद्ध वैचारिक शंखनाद करने की सामर्थ्य रखने वाले पाञ्चजन्यों को फूंक देकर गुंजाने वाले केशव की बस प्रतीक्षा की जा सकती है। ढपोरशंख तो कल भी अपनी मस्ती में मस्त थे। आज भी अपनी पीठ अपने हाथों खुजाने में पारंगत जो हैं। स्वाधीन भारत के अमृत काल मे उम्मीद का अधिकार एक भारतीय के रूप में समर्थ व सशक्त साधकों को है। इस नाते अपेक्षा की जा सकती है कि नगरी को साहित्य के क्षितिज पर मान दिलाने वाले अपने विशद सृजन को असामयिक काल कवलित होते देखने के अभिशाप से मुक्ति पा लेंगे। इसके बाद साहित्य नगरी एक बार उस सृजन के पथ पर अग्रसर हो सकेगी, जो बहुकोणीय और बहुआयामी हो। जहां साहित्य का वंश केवल कविता पर आश्रित न होकर अन्यान्य विधाओं को पुष्पित, पल्लवित व सुरभित होते देख सके।
इति शिवम्। इति शुभम्।।

■ मुक्तिबोध की विरासत में रहे भागीदारी…..
राज्य शासन को चाहिए कि वह साहित्य व संस्कृति के प्रचार-प्रसार में क्रियाशील साहित्य परिषद, साहित्य अकादमी, ग्रंथ अकादमी, रामायण केंद्र व स्वराज संस्थान जैसी संस्थाओं व संस्कृति विभाग को श्योपुरः की महत्ता व उपादेयता को स्वीकारने व आगे बढाने के लिए निर्देशित करे। महाकवि मुक्तिबोध की जन्म जयंती अथवा पुण्यतिथि से जुड़ा एक समागम उनकी जन्मस्थली श्योपुरः को दिया जाए। ताकि ना तो “मुक्तिबोध अंधेरे में” रहें। ना ही उनकी साहित्यिक विरासत में प्रतिनिधित्व चाहती श्योपुरः नगरी में “चाँद का मुँह टेढ़ा” रहे। विडम्बना का एक उदाहरण बीते 11 सितम्बर का दिन है। मुक्तिबोध के महाप्रयाण के इस विशेष दिन को न सूबे ने याद रखा, न श्योपुरः ने। इन सबके पीछे कारण वही जो इस आलेख का सार भी है और शीर्षक भी। वही कूप-मण्डूकता व आत्म-मुग्धता, जिसके पीछे स्वाध्याय व सुसंगत का अभाव है। कारण एक अच्छे पुस्तकालय की कमी। जो दीर्घकाल तक श्योपुर कस्बे में था किंतु आज ज़िला मुख्यालय पर नही है। नहीं भूला जाना चाहिए कि यह नगर साहित्य कोष को अमूल्य रत्न देने में कल भी समर्थ था। आज भी है और कल भी रहेगा।

■ पुरातन प्रतिष्ठा के पुनर्स्थापन के लिए….
★ संस्थागत स्तर पर आयोजित हों महानतम साहित्यकारों व महापुरुषों के जयंती व स्मृति पर्व।
★ सामयिक, सामाजिक व ज्वलंत विषयों पर विमर्श व निष्कर्ष के निमित्त आयोजित हों संगोष्ठियां।
★ नगर व ज़िले के दिवंगत व जीवंत सहित्यसेवियों के संग्रहों का प्रकाशन कराएं सम्बद्ध सरकारी उपक्रम।
★ ज़िला व नगर प्रशासन के स्तर पर दिया जाए क्षेत्र के साहित्यिक आयोजनव को संरक्षण व सहयोग।
★ निर्धारित व पारम्परिक आयोजनों को बनाया जाए बाहरी बिचौलियों व ठेकेदारों के हस्तक्षेप से मुक्त।
★ शासकीय व राजकीय पर्वों में मिले साहित्यिक समागमों और रचनाकारों को पात्रतानुरूप महत्व।
★ स्थानीय व आंचलिक लोक उरसवों व क्षेत्रीय मेलों में पुनः आरंभ हो साहित्यिक आयोजनों की परंपरा।
【विद्यार्थियों/शोधार्थियों के लिए】
■एक प्रयास मेंढकों को कुएं से सागर में लाने का।■

©® संपादक/न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)

1 Like · 240 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.

You may also like these posts

At the age of 18, 19, 20, 21+ you will start to realize that
At the age of 18, 19, 20, 21+ you will start to realize that
पूर्वार्थ
4679.*पूर्णिका*
4679.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
!! वो बचपन !!
!! वो बचपन !!
Akash Yadav
- तुम मेरे लिए आरुषि के समान -
- तुम मेरे लिए आरुषि के समान -
bharat gehlot
*प्रेम कविताएं*
*प्रेम कविताएं*
सुरेन्द्र शर्मा 'शिव'
इंसानों को इंसानों की, भीड़ कुचलती चली गयी
इंसानों को इंसानों की, भीड़ कुचलती चली गयी
Dhirendra Singh
श्रंगार
श्रंगार
Vipin Jain
आप शिक्षकों को जिस तरह से अनुशासन सिखा और प्रचारित कर रहें ह
आप शिक्षकों को जिस तरह से अनुशासन सिखा और प्रचारित कर रहें ह
Sanjay ' शून्य'
होली
होली
विशाल शुक्ल
कहे करेला नीम से
कहे करेला नीम से
RAMESH SHARMA
“प्रजातांत्रिक बयार”
“प्रजातांत्रिक बयार”
DrLakshman Jha Parimal
..
..
*प्रणय प्रभात*
सजल
सजल
seema sharma
प्यासा के कुंडलियां (विजय कुमार पाण्डेय 'प्यासा')
प्यासा के कुंडलियां (विजय कुमार पाण्डेय 'प्यासा')
Vijay kumar Pandey
इतना रोए कि याद में तेरी
इतना रोए कि याद में तेरी
Dr fauzia Naseem shad
कोई नहीं साथ
कोई नहीं साथ
TAMANNA BILASPURI
“रफ़्तार पकड़ती ज़िंदगी”
“रफ़्तार पकड़ती ज़िंदगी”
ओसमणी साहू 'ओश'
🎋🌧️सावन बिन सब सून ❤️‍🔥
🎋🌧️सावन बिन सब सून ❤️‍🔥
डॉ० रोहित कौशिक
*जो भी जन भोले-भाले हैं, उनको केवल पछताना है (राधेश्यामी छंद
*जो भी जन भोले-भाले हैं, उनको केवल पछताना है (राधेश्यामी छंद
Ravi Prakash
सवाल क्यों
सवाल क्यों
RAMESH Kumar
गीत- निभाएँ साथ इतना बस...
गीत- निभाएँ साथ इतना बस...
आर.एस. 'प्रीतम'
चारु
चारु
NEW UPDATE
हम कितने नोट/ करेंसी छाप सकते है
हम कितने नोट/ करेंसी छाप सकते है
शेखर सिंह
पिता और प्रकृति
पिता और प्रकृति
Kirtika Namdev
अरे योगी तूने क्या किया ?
अरे योगी तूने क्या किया ?
Mukta Rashmi
तेरे मेरे दरमियाँ ये फ़ासला अच्छा नहीं
तेरे मेरे दरमियाँ ये फ़ासला अच्छा नहीं
अंसार एटवी
ज़िंदगी के रास्ते सरल नहीं होते....!!!!
ज़िंदगी के रास्ते सरल नहीं होते....!!!!
Jyoti Khari
" इतिहास लिखो "
Dr. Kishan tandon kranti
मिसाल देते न थकता था,
मिसाल देते न थकता था,
श्याम सांवरा
कैसे प्रियवर मैं कहूँ,
कैसे प्रियवर मैं कहूँ,
sushil sarna
Loading...