मन की सिलवटें
रोज सुबह उठते ही
मन की सारी सिलवटें
समेट तह लगाते हैं ।
मन को फिर सुला नींद
मस्तिष्क को जगाते हैं ।
करते फिर प्रण निज से,
दायित्व जो जगत के
हम वो सभी निभाएंगे ।
सत्कर्मों की पौध सब
स्वयं की कर्मभूमि पर
नित्य ही लगायेंगे ।
कभी तो होगी पल्लवित
ये पौध मेरे यत्न से ।
बस इसी आकांक्षा में
हम जिए ही जा रहे हैं ।
सुख की इस प्रतीक्षा में
रीतता रहा है मन ।
समय की इस गति में बस
बीतता रहा है तन ।
रात्रि के पुनः आगमन पर
जागता है फिर ये मन
और अपने सारे उपक्रम
मेरे सिरहाने सजाता ।
आंसुओं को दे निमंत्रण
रात्रि भर मुझको जगाता ।