एक दिन चुक जाएगी
रोज मन की पीड़ा
उकेरती हूँ कागज पर ।
सोंचती हूँ सब लिखूंगी
तो एक दिन चुक जाएगी
किन्तु जितनी सतह तक
उकेरती प्रयत्न से
सतह की दरारों पर और
विषाद रिस आता है ।
विषाद के रिसाव मे
मन में जो दलदल हुआ;
विचार सब मस्तिष्क के
वहां ठहर न पा रहे ।
मानों ये अक्षय पात्र है
पीड़ा भरा मेरा हृदय
मैं जितना खाली कर रही
उतना ही भरता जा रहा ।
ये सिलसिला रुकेगा कब ?
मन बहुत अधीर अब ।
नित्य स्व प्रयास से
सब मार्ग हूँ बुहारती ।
कभी तो यज्ञ पूर्ण होगा
पूर्ण होगी आहुति ।