धर्म और संस्कृति
अब अतिशय होय समाज में
और धर्म कर्म की नित क्षति
बात संभल जाने की त्वरित
प्रारंभ वर्ग विशेष की दुर्गति।
वेश बदल कर देख भेड़िए
करने लगे हैं समूह में घात
नश्वर दिखती पुरातन संस्कृति
मिल बैठे दुर्बुद्धी उनसे आज।
राज पाट कुछ ठीक नहीं
जब अत्याचार बढ़ जाए
हो मूल मिटाने की कोशिश
जड़ बिना काट के गल जाए।
देखो फ़िर चहुओर यहां
अपने विनाश की लीला
इज्ज़त दांव लगाया जाता
शरीर पड़ता है नीला पीला।
है आवश्यक अब नेतृत्व की
रखिए इस बात का ध्यान
हो सजग आवाज़ उठाने की
यदि बचाना हो धर्म का मान।
बहुत किया आराम यहां
और औरों कि चाटुकता
भूले धर्म कर्मों की पद्धति
पीढ़ी दर पीढ़ी रहा भुगदता।
सब अपने हैं पर मुख्य बनकर
रोज नोच कर करते छिन्न
अस्तित्व लगा है दांव पर
अब दिखने लगे हैं सबसे क्षीण।
समय रहते सभी ज्ञान धरो
वरना हो सकती है देर
फ़िर अंत पछताना होगा
हो पायेगा ना उलट फेर।
धर्म कर्म और वाणी से
यदि बढ़ जाये जग में ताप
विशुद्धीयां सब उड़ने लगेंगी
उष्णता से बनकर भाप।
बात बहुत गहरी है मानव
धर ले जरा सा ध्यान
बढ़ा कदम संस्कृति रक्षा को
क्यों सहता रहता नित अपमान।
प्रेम शंकर तिवारी
वाराणसी उत्तर प्रदेश