दायरे से बाहर
पत्थर पे फूल खिला सकते हो क्या
सोई हुई ज़मीर जगा सकते हो क्या ।
बड़ा गरूर है अपने तरक़्क़ी पर तुम्हें
मरे हुए को भी जिला सकते हो क्या ।
बड़े आए हो यहाँ तुम मसीहा बनकर
पत्थरों को भी पिघला सकते हो क्या ।
किस वहम-ओ-गुमान में जी रहें हो
वक़्त को बेवकूफ बना सकते हो क्या।
अज़ीब अहमक हो यार,अजय तुम भी
गजलों से गरीबी मिटा सकते हो क्या।
-अजय प्रसाद
लोग यहाँ बेमौत मर रहे हैं
और आप शायरी कर रहे हैं ।
कमाल के शख्स हैं आप भी
जिम्मेदारियों से मुकर रहे हैं ।
इतने खुदगर्ज़ कैसे हो गए
कि संकट में भी संवर रहे हैं ।
इस कदर बेरूखी हालात से
हो कैसे आप बेखबर रहे हैं ।
ज़रा अपने पूर्वजों की सोंचे
क्या कभी लोग बेहतर रहे हैं ।
अब दिमाग मत चाटो अजय
हमारे दिल क्या पत्थर रहे हैं ।
अजय प्रसाद
चुभने लगे हैं अब तो गुलाब भी
जलाते हैं रातों को माहताब भी ।
नींद जब आती है तरस खा कर
सो चुके होते हैं तब ख्वाब भी ।
सोंच गर सड़ जाए सच्चाई की
खोखले लगतें तब इन्क़लाब भी।
बदल कर रख देगी वबा ज़रुर
इंसानियत की तरह इंतखाब भी ।
मेरा क्या है अजय रहूँ या न रहूँ
दुनिया रहेगी नेक और खराब भी ।
-,अजय प्रसाद
भूखे पेट तो प्यार नहीं होता
खाली जेब बाज़ार नहीं होता ।
पढ़ा-लिखा के घर पे बिठातें हैं
यूँही कोई बेरोज़गार नहीं होता ।
बेलने पड़ते हैं पापड़ क्या क्या
आसानी से सरकार नहीं होता ।
आजकल के बच्चों से क्या कहें
सँग रहना ही परिवार नहीं होता ।
दिल में गर खुलूस न हो अजय
तो फ़िर सेवा,सत्कार नहीं होता।
-अजय प्रसाद
जी रहें हैं वो गरीबों की हाय लेकर
जैसे खुश होता है बच्चा टॉय लेकर।
जानतें हैं नंगे आएं हैं नंगे ही जाएंगे
भला करेंगें क्या अकूत आय लेकर ।
ये तुम जो दिनरात जुगाड़ में लगे हो
क्या होगा ज़िंदगी भर उपाय लेकर ।
अमीरी-गरीबी हैं एक दूजे के पूरक
संबल का गुजारा है असहाय लेकर ।
शायद ज़िंदादिली इसी को कहते हैं
ज़िंदगी हरहाल जीए एन्जॉय लेकर ।
-अजय प्रसाद
मुझें साहित्यकार समझने की आप भूल न करें
उबड़-खाबड़,कांटेदार रचनाओं को फूल न कहें।
मेरी रचनाएँ बनावट और सजावट से हैं महरूम
कृपया अलोचना करें मगर ऊल-जुलूल न कहें ।
हाँ चुभते ज़रूर हैं चंद लोगों की नज़रों में यारों
हक़ीक़त में हैं नागफनी ,इन्हें आप बबूल न कहें।
कुछ तो बदलाव लाया जाए परंपरागत लेखन में
सदियों से रहा यही है साहित्य का उसूल न कहें ।
बड़े आए अजय तुम साहित्य के सुधारक बनकर
बहुत सह लिया हमनें आपको,अब फ़िज़ूल न कहें
-अजय प्रसाद
काटते हैं मुसीबतों का पहाड़ ‘मांझी’ जैसे
मसअले उजाड़ जातें हैं हौसले,आंधी जैसे ।
जालिमों कर लो ईज़ाद नए ज़ुल्मो सितम
ऊब गये हम लड़ते-लड़ते अब ‘गांधी’जैसे ।
खुदा भी मेहरबाँ है बिलकुल उसी तरह से
होतें महलों में बसे शहंशाहों के बांदी जैसे ।
गमों के गिर गए हैं दाम गरीबी देखके यारों
खुशियाँ हो गई महंगी सोने और चांदी जैसे।
अफ़सोस अजय तेरा ज़ेहनो ज़मीर ज़िंदा है
काश! जी लेता तू भी आधी आबादी जैसे
-अजय प्रसाद
बात को बतंगड़ बनाना ,कोई आप से सीखे
बेशर्मी की हद तक जाना कोइ आप से सीखे ।
यूँ तो कितने आये और गए सियासत में हुजूर
मौके का फायदा उठाना कोई आप से सीखे ।
हर्रे लगे न फिटकरी,मगर रंग चोखा हो जाए
भई , जनता को भरमाना कोई आप से सीखे।
मिट्टी के माधो बना कर रखा है विपक्षियों को
सियासी पैतरें आजमाना कोई आप से सीखे।
तुम भी कम नहीं हो लंबी हाँकने में अजय
घटिया शायरी पे इतराना कोई आप से सीखे ।
-अजय प्रसाद
खुद को तू खुदगर्ज होने से बचा
बहती गंगा में हाथ धोने से बचा।
भले लोग समझे पत्थर दिल तुझे
मगर घड़ियाली रोना रोने से बचा।
देख खूबसूरती होती है इक बला
अपनी आँखों को खोने से बचा ।
सादगी भी सितम ढाती है कभी
खुद को ही शिकार, होने से बचा ।
दिलो-दिमाग के झगड़े में अजय
अपनी लुटिया को डुबोने से बचा।
-अजय प्रसाद
बेहद मामूली और गौण हूँ
इल्म है मुझे की मैं कौन हूँ ।
मुझे पता है औकात मेरी
इसलिए तो रहता मौन हूँ ।
गलतफहमि आप न पालें
मैंने कब कहा,मै फिरौन हूँ ।
वक्त बहुत खुश है मुझ से
नज़रों में उसके मैं गौण हूँ ।
दहशत में हैं लिखने वाले
क्या मैं साहित्यक डौन हूँ ?
-अजय प्रसाद
भूला दिया एहसान,कोई बात नही
गर है यही पहचान,कोई बात नही ।
दुख होता है ,लोगो के खुदगर्ज़ी पे
मतलबी है इन्सान,कोई बात नही ।
वेबजह ही मैने ख्वाब देख डाले कई
दिल किया परेशान ,कोई बात नही ।
सारे इल्जाम भी मुझपे लगाए तुमने
हुए इतने मेहरबान ,कोई बात नही ।
जीना है अजय तुझे फना होने तक
है उनका ये फरमान, कोई बात नही ।
-अजय प्रसाद
दिल लगाने की बात न कर
इस जमाने की बात न कर ।
कौन कब धोखा दे दे यहाँ
दोस्ताने की बात न कर
मेरी किस्मत में है ही नही
घर बसाने की बात न कर ।
भूल जाते हैं लोग खुदा
आजमाने की बात न कर ।
तेरी महफिल में हम भी तो हैं
उठ के जाने की बात न कर ।
रौशनी गर मंजूर नहीं
घर जलाने की बात न कर ।
रूठ कर मैं जाऊँगा कहाँ
तू मनाने की बात न कर ।
-अजय प्रसाद
साहित्य की दीवार में सेंध लगा रहा हूँ
जबरन अपने लिए मैं जगह बना रहा हूँ ।
बड़े अकड़ थे सम्पादकों के यारों पहले
आजकल मैं उनको ठेंगा दिखा रहा हूँ ।
भला हो जमाना-ए- सोशल मीडिया का
खुद अपनी गज़लें पोस्ट कर पा रहा हूँ ।
फ़ेसबुक,ई-पत्रिकाएं,कई बड़े समूहों में
अब तो लाइव मुशायरों में भी आ रहा हूँ ।
नहीं लगता अजय तुम्हे ये कहना होगा
अपने को ही मुँह मियाँ मिट्ठू बना रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद
हम से तेरे ये नाज़ो नखरें उठाए न जाएंगे
गली में तेरे मुझसे चक्कर लगाए न जाएंगे।
कबूल हूँ गर इश्क़ में तो तू खुद आके मिल
इस कदर भी आशिक़ी में झुकाए न जाएंगे ।
हाँ तू है बेहद खूबसूरत तो बता मै क्या करूँ
तारीफों के पुल हमसे और बनाए न जाएंगे ।
मेरी भी कुछ हैसियत तो होगी तेरी नज़रों में
रिश्ते गुजरे वक्त की तरहा निभाए न जाएंगे।
फारिग हो जा मुझसे या फना कर दे मुझे तू
बेबज़ह तेरे लिए दुसरे तो ठुकराए न जाएंगे ।
-अजय प्रसाद
प्रेम में प्रकृति से यूँ मुहँ मत मोड़ो
चाँद,सूरज को बख्शो,तारे मत तोड़ो ।
बादलों को रहने दो अपनी जगह
उन्हें हुस्न के ज़ुल्फ़ों से मत जोड़ो ।
फूल,कलियाँ हैं बागों की अमानत
बहारों से सबका रिश्ता मत तोड़ो।
बिजली,बारिश,सावन की घटा को
कृपा करके अपने हाल पर छोड़ो ।
प्रेम में प्रकृति ने लुटा दिया खुद को
या खुदा!उसे अब और मत तोड़ो ।
प्रेम में सिर्फ़ सेवा औ त्याग चाहिए
जिस्म के लिए रूह तो मत तोड़ो ।
बस बहुत हो गया अजय बकबक
खामखाह अपना सर मत फोड़ो।
-अजय प्रसाद
देखें ज़रा क्या पैगाम आता है
ज़हर या फिर ज़ाम आता है ।
चराग जो जला है आंधियों में
हवाओं से भी सलाम आता है ।
जाने क्यों जल जातें हैं लोग
ज़िक्र में जब वो नाम आता है ।
सुख में सब आते हैं बिन कहे
दुख में बस आँसू काम आता है ।
तेरी शायरी को अजय क्या कहें
जैसे मेढकी को जुकाम आता है ।
-अजय प्रसाद
विज्ञापनों के बहकावे में न आ
बेसिर-पैर के दिखावे में न आ ।
जो गुज़ार चुके हैं पूछ ले उनसे
यूँ ज़िंदगी के छ्लावे में न आ ।
हमेशा तबाही लेकर ही आती है
इस तकनीकि भूलावे में न आ ।
गल्तियों से सबक लेना तू सीख
फ़िर से उनके दोहरावे में न आ ।
हाँ वक्त देता है मौका सुधरने का
चका चौंध के शोरशरावे में न आ ।
-अजय प्रसाद
क्यों है नारा “बेटी बचाओ ”
क्यों नहीं”बेटों को समझाओ “।
आखिर कर बेटियाँ बचे कैसे
यही बेटों को भी तो बताओ ।
जब हक़ है दोनों के बराबर
तो प्यार दोनों पर लुटाओ ।
बेखौफ़ होके ज़िंदगी गुजारे
भई,ऐसा भी माहौल बनाओ ।
गर इतना-सा भी न कर सके
तो फिर ये नारा मत लगाओ ।
-अजय प्रसाद
शादी से बड़ी कोई भूल नहीं है
और ये सच,अप्रैल फूल नहीं है ।
खुश वही है रहता शादी के बाद
जिसके लिए पत्नी बबूल नहीं है ।
जींदगी बेवकूफ बनाती है रोज़
यहाँ कोई वार्षिक उसूल नहीं है।
घर,दफ़तर,बाज़ार या रिश्तेदार
कौन देता यहाँ पर हूल नहीं है ।
बंद करो न अजय ये रोना-धोना
हमारे पास वक्त फिजूल नहीं है ।
-अजय प्रसाद
तोड़ दिया दिल मेरा उसने खुद से अटैच करके
छोड़तें है क्रिकेट में फिल्डर ज्यूँ बॉल कैच कर के ।
इस कम्बखत इश्क़ ने मुझे अब कहीं का न छोड़ा
दिल और दिमाग को रख दिया है डिटैच कर के।
मंदिर,मस्जिद,चर्च औ गुरुद्वारे से भी खफ़ा हूँ मैं
क्यों मेरी जोड़ी बनाई गई थी मिस मैच कर के ।
अच्छा भला जी रहा था मैं बेहद खुशी से ज़िंदगी
रुलाया गया है मुझे,गमों को मुझ से पैच करके ।
ये क्या बात है कि उटपटांग लिखने लगे अजय
उसके मुहल्लेवाले कहीं रख न दे डिस्पैच कर के ।
-अजय प्रसाद
जमाना है अक़्सर उन्हें भूल जाता
जो राहों में सब के है कांटे बिछाता ।
भलाई भी तो हद से ज्यादा बुरी है
जहाँ झोंक आँखों में है धूल जाता ।
दग़ा दोस्त ही जब करें दोस्ती में
है जीगर में चुभ तब कोई शूल जाता ।
न हो बाग पे गर नज़र बागवाँ की
उदासी में मुरझा है हर फूल जाता ।
अजय अब तू भी भूल जा ये शराफ़त
भले को है समझा यहाँ शूल जाता ।
-अजय प्रसाद
पिता
शब्द नहीं परिवार पिता है
खामोशी से प्यार पिता है ।
जग जाहिर है माँ की ममता
मगर असली आधार पिता है ।
धूप,बारिश,सर्दी से बचने को
जैसे छत और दीवार पिता है ।
पीढ़ी दर पीढ़ी की निशानी
रीति-रिवाज संस्कार पिता है ।
हो हैसियत कुछ भी जहां में
बच्चों के लिए संसार पिता है ।
माँ की तारीफें करता हर कोई
पर असल में हकदार पिता है ।
-अजय प्रसाद
आईने अब मुझे चिढ़ाने लगे
हो गया बूढ़ा मैं , बताने लगे ।
क्या करूँ तू बता मैं अब ज़िंदगी
अक़्स अपने ही जब पुराने लगे ।
खौफ़ से रौशनी में जाता नहीं
साया मेरा न अब डराने लगे ।
उम्र का ही असर लगे है मुझे
झुर्रियां चेह्रे पे नज़र आने लगे
चल अजय मान ले हकीक़त तू भी
तेरे अपने भी अब भुलाने लगे ।
-अजय प्रसाद
मुझे नाकाम रहने दे
अभी गुमनाम रहने दे ।
भले नफरत से देखे वो
मुझे बदनाम रहने दे ।
मेरी तकलीफें तो खुश हैं
अभी आराम रहने दे ।
पढूंगा मैं भी ,आँखों में
तेरा पैगाम रहने दे ।
ज़रा जी लूँ मैं गफ़लत में
अभी तू ,जाम रहने दे ।
खुशी में तेरी, खुश हूँ मैं
मुझे बे-नाम रहने दे
अजय तू भूल जा सब कुछ
हसीं ये शाम रहने दे ।
-अजय प्रसाद
टूट कर जो बिखर जाते हैं
क्या पता वो किधर जाते हैं ।
दिल में वो रहते हैं फ़िर कहाँ
जो नज़र से उतर जाते हैं ।
गैर कब तक भला साथ दे
अपने ही जब मुकर जाते हैं ।
पूछते हैं कहाँ हाल अब
दूर से ही गुजर जाते हैं ।
देखा है मैंने लोगों को भी
सब गवां कर सुधर जाते हैं ।
-अजय प्रसाद
गजलों को मेरी तू तहजीब न सीखा
मतला, मकता, काफ़िया, रदीफ न सीखा ।
कितनी बार गिराया है मात्रा बहर के वास्ते
कैसे लिखते हैं दीवान ये अदीब,न सीखा ।
देख ले शायरी में हाल क्या है शायरों का
किस तरह रह जाते हैं गरीब न सीखा ।
महफ़िलें, मुशायरें, रिसाले मुबारक हो तुझे
मशहूर होने की कोई तरक़ीब न सीखा ।
गुजर जाऊँगा गुमनाम, तेरा क्या जाता है
शायरी मेरी है कितनी बद्तमीज़ न सीखा ।
हक़ीक़त भी हक़दार है सुखनवरी में अब
ज़िक्रे हुस्नोईशक़, आशिको रकीब न सीखा ।
मेरी आज़ाद गज़लों पे तंज करने वालों
मुझे कैसे करनी खुद पे ,तन्कीद न सीखा ।
पढ़तें है लोग मगर देते अहमियत नहीं
अजय यहाँ है कितना बदनसीब न सीखा
-अजय प्रसाद
लम्हा गर हूँ
मुख्त्सर हूँ
इश्क़ से मैं
बे-खबर हूँ ।
हुस्न वालों
इक बशर हूँ
रास्तों का
हम सफर हूँ ।
आज भी मैं
दर ब दर हूँ ।
देख तो ले
किस कदर हूँ ।
हाँ ‘अजय’ मैं
हार कर हूँ ।
-अजय प्रसाद
जैसी नियत
वैसी वरकत ।
छोड़ नफ़रत
कर मुहब्बत ।
दिल लगा कर
पाले जन्नत ।
धर्म ,मज़हब
बस है फितरत ।
आओ हम तुम
जोड़े रगवत ।
मिल के रहना
अपनी चाहत।
हम हैं जिंदा
उसकी रहमत ।
ज़िंदगी क्या
रब की नेमत ।
फ़िर अजय तू
कर ले उल्फत ।
-अजय प्रसाद
गज़ल
उम्रभर दर ब दर
ज़िंदगी बेखबर ।
मंजिलें हैं जुदा
रास्ते हम सफर ।
मन्नते है खफ़ा
हर दुआ बेअसर ।
क्या पता क्या खता
चल रहा शूल पर ।
सच बता क्या हुआ
क्या मैं था भूल पर ।
जुर्म है इश्क़ भी
सोंच कर प्यार कर
हार सकता नहीं
है अजय, तू अगर ।
-अजय प्रसाद
वक्त कि मार से तुम बच पाओगे क्या
जो अब तक नहीं हुआ ,कर पाओगे क्या
हो इतने मुतमईन कैसे अपनी वफ़ात पे
जिम्मेदारीयों से यूँही निकल जाओगे क्या
वादा किया था साथ निभाने का उम्रभर
तो मुझको आजमाने फिर आओगे क्या
माना कि हक़ीक़त मे ये मुमकिन ही नहीं हैं
मगर ख्वाबों मे आने से मुकर जाओगे क्या
तुम भी किस बात पे अड़ के बैठे हो अजय
उसने ने कह दिया नही तो मर जाओगे क्या
-अजय प्रसाद
मुतमईन =satisfied मुमकिन =possible
वफ़ात =death मुकर =disobey
जलियाँवाला बाग
चलिये मान लिया की बेहद क्रूर था जनरल डायर
मगर वो गोलियाँ चलाने वाले क्या नहीं थे कायर ?
क्या निहत्थे मासूम लोगों को उन्होँने नहीं देखा ?
क्या उनके दिल में ज़रा सा भी रहम नहीं पनपा ?
बस एक गोली काफी था डायर को मारने के लिए
क्या कोई नहीं था गलती उसकी सुधारने के लिए?
काश कोई होता अगर भगत जैसा माई का लाल
कसम से कहता हूँ कि नहीं हमें होता आज मलाल।
बच जाती तब शायद हजारों मासूम लोगों की जानें
न होता वो जलियाँवाला बाग हत्याकांड आप मानें।
-अजय प्रसाद