■ गीत / सामयिक परिप्रेक्ष्य में
😢 प्रतीकात्मक गीत :-
◆ हरियाती अमरबेल और सूखता पेड़◆
【प्रणय प्रभात】
कितनी गदगद है देखो कितना हर्षाती है।
पेड़ सुखा कर अमरबेल कितना इतराती है।।
■ परजीवी है उसे पता क्या जीवन के मानी।
क्या श्रम और सुकृत्य सभी से है वो अंजानी।
आलिंगन कर सब कुछ हरना नीति-नियत उसकी।
मतलब बस आरोहण से परवाह करे किसकी?
जिसे पकड़ ऊंचाई पाई उसे सुखाती है।
पेड़ सुखा कर अमरबेल कितना इतराती है।।
■ मोह विहग-वृन्दों से ना शुभ चिंतन है वन का।
किसी नीड से क्या लेना-देना उस नागन का?
उजड़े वन मर जाए परिंदे उसको क्या लेना?
उसे छीन लेना आता है कब भाया देना?
बनी रहे अपनी हरियाली उसे सुहाती है।
पेड़ सुखा कर अमरबेल कितना इतराती है।।
■ पता नहीं क्यों उदासीन है इस छल से माली।
देख रहा नित झरते पत्ते, सूख रही डाली।
तिल-तिल मरते एक विटप की चिंता यदि करता।
इसी बेल की क्षुद्र जड़ों में छाछ नहीं भरता?
लगता है कुछ मिलीभगत यह खेल कराती है।
पेड़ सुखा कर अमरबेल कितना इतराती है।।
■ दुरभि-संधि करते माली को और न अवसर दें।
आओ परजीवी बेलों को तहस-नहस कर दें।
आगत में ना ऐसी बेलें पेड़ों को जकड़ें।
जो छतनार वृक्ष हैं उनकी रक्षा को उमड़ें।
वन, उपवन आने वाली पीढ़ी की थाती है।
अब देखेंगे अमरबेल कब तक इतराती है।।”
【राष्ट्र रूपी छतनार वृक्ष को सुखाने पर आमादा परजीवियों अर्थात मुफ्तखोरों को सधिक्कार समर्पित】