हिन्दी–उर्दू सुख़नवरों के लिए छन्द–विधान
ग़ज़ल कहनी न आती थी तो, सौ-सौ शे’र कहते थे
मगर एक शे’र भी ऐ मीर, अब मुश्किल से होता है
—मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल कितनी मुश्किल विद्या है। ये बात खुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर के इस शे’र से समझी जा सकती है। पहाड़ी नदी अपने उद्गम स्थल से जब मैदान की तरफ़ सफ़र तय करती है तो कितना शोर करते चलती है? लगता है सब कुछ अपने साथ बहाकर ले जाएगी। यही स्थिति कमोवेश हर नए लिखने वाले के साथ होता है। वो सबकुछ लिख लेना चाहता है। अपने भाव में सब कुछ समो लेना चाहता है मगर जैसे-जैसे नदी की यात्रा आगे-आगे चलती है। उसमें विस्तार होने लगता है तो कुछ ठहराओ भी आने लगता है। यही स्थिति ‘स्थिर प्रज्ञा’ कहलाती है। जब बेशुमार पन्ने काले करने के उपरान्त कुछ महीनों, सालों बाद एक परिपक्वता से रचनाकार गुज़रता है तो उसे अहसास होने लगता है वह अब तक जो कुछ कर रहा था बे’मानी था। शून्य था। पहाड़ से नदी मैदान में और फिर समुद्र की ओर बढ़कर उसमें विलीन हो जाती है। एकदम शांत। यहाँ पहले चिन्तन फिर मन्थन का बड़ा भारी दौर शुरू होता है और रचनाकार तब जो भी कहता व करता है संगे-मील (मील का पत्थर) बन जाता है। मीरो-ग़ालिब, कबीर-सूर-तुलसी के समक्ष आ खड़ा होता है।
ग़ज़ल ‘अरबी’ से अथवा ‘फ़ारसी’ से ‘हिन्दी’ में आई—हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे। इस पर पहले ही अनेक विद्वान बड़े-बड़े आलेख लिखकर अमर हो चुके है। मुस्लिमों के साथ-साथ हिंदुस्तान में अरबी–फ़ारसी के बड़े-बड़े विद्वान हिन्दी के आदिकाल से ही जुड़ गए थे। अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो (1262-1324) हिन्दवी के भी बड़े विद्वान थे। उनकी ग़ज़लें, मुकरियाँ, दोहे आदि प्रचलित हैं। मलिक मुहम्मद जायसी ने हिन्दी को पहला महाकाव्य ‘पद्मावत’ दिया। जिसकी शैली का अनुकरण करते हुए बाद में महाकवि तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ रचा। आदिकाल से आधुनिक काल तक हमारे सारे हिन्दू-मुस्लिम कवि छन्दों के विधि-विधान से भली-भाँति परिचित थे। उन्हें ये जानकारियाँ संस्कृत (भारत में ऋषि-मुनियों व काव्य शास्त्रियों द्वारा बनाये छन्द) और अरबी-फ़ारसी (फ़ारस और अन्य मुस्लिम मुल्क़ों में प्रचलित बहर) से प्राप्त हुई। तभी उनका रचा आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अजर-अमर और सुरक्षित है। हिन्दी के भक्तिकाल से रीतिकाल तक आते-आते जब फ़ारसी का असर हिन्दुस्तानियों में कुछ कम हुआ और गिरी-पड़ी ‘रेख़्ती’ से नई भाषा उर्दू प्रचलित और लोकप्रिय होने लगी तो भारतीय ग़ज़लों का स्वरूप बदलने लगा। मुग़लकालीन कवि वली मोहम्मद वली (1667-1707) उर्फ़ ‘वली दक्कनी’ जिनका जन्म 1667 को औरंगाबाद में हुआ। यह उर्दू शायरी के जनक कहे गए। उर्दू शायरी को दिल्ली में स्थापित करने वाले पहले शायर थे। आगे मीर तकी ‘मीर’ (1723–1810) व मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ‘ग़ालिब’ (1796–1869) दोनों उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। ये उर्दू ग़ज़ल का शौभाग्य कहिये या इन दोनों महान शाइरों का भविष्य के प्रति नज़रिया कि दोनों उस्तादों ने आने वाले वक़्त में उर्दू की ख़ुश्बू को पहचान लिया था। और उर्दू में एक से एक बकमाल ग़ज़लें कहीं। जिन्हें आज भी बाज़ मौक़ों पे महफ़िलों-फ़िल्मों, आलेखों में इस्तेमाल किया जाता है। यही वो दौर है जब उर्दू ने खूब तरक़्क़ी की और अपना सर्वोच्च मुक़ाम हाँसिल किया। इसमें अनेकों शाइरों जौंक, ज़फ़र, आतिश, सौदा, दर्द, इंशा, मोमिन, दाग़, मुस्तफ़ा, हाली, जिगर, अकबर, हसरत, फ़िराक़ आदि ने अपनी छाप छोड़ी। अब नए-नए सुख़नवर ग़ज़ल को नई परवाज़ दे रहे हैं।
ग़ज़ल क्या है? अरूज क्या है? इस पर भी सैकड़ों आलेख समय-समय पर तक़रीबन हर उस भाषा में लिखे जाते रहे हैं, जिस भी भाषा में ग़ज़ल कही जाती रही है। यहाँ हम सिर्फ़ हिंदी-उर्दू ग़ज़ल पर ही चर्चा करेंगे। ‘शब्द’ यानि ‘ध्वनि’ है—’ध्वनि’ यानि ‘आवाज़’—’आवाज़’ के मानी ‘शब्द’—और ‘शब्द’ का अपना एक सुनिश्चित आकार है। साहित्य की कोई भी विधा हो “गद्य–पद्य” उसका मूल बिन्दु शब्द ही है। ‘पद्य’ में रचनाकार एक विधि-विधान से चलता है जबकि ‘गद्य’ में रचनाकार पर कोई बन्धन नहीं है। यानि ‘कहानी’, ‘नाटक’, ‘उपन्यास’, ‘आलेख’ आदि में शब्द आप कैसे भी? और कितने ही रखें? कोई दिक़्क़त नहीं। यहाँ तक कि छन्द मुक्त कविता भी किसी विधि-विधान, छन्द-बहर, मीटर की मोहताज़ नहीं है। यदि आप छन्द युक्त कविता, गीत, ग़ज़ल, नज़्म, दोहे, जनक छन्द, कुण्डलिया, चौपाई आदि किसी भी विधा पर काम कर रहे हैं तो उसके मूल में छन्द काव्य के नियम है, जिनका पालन करना आवश्यक है। छन्द और बहर से खारिज़ होते ही आपकी छन्दवद्ध रचना खारिज़ हो जाती है। आपको शा’इर और कवि के रूप में स्थान नहीं मिल सकता। ध्वनियाँ दो ही तरह की होती हैं या तो “लघु” (छोटी + वज़्न—1) या “दीर्घ” (बड़ी + वज़्न—2)। फ़ारसी में इसी ‘छोटी’—’लघु’ ध्वनि को ‘साकिन’ कहते हैं, लंबी ध्वनि—’गुरु’ को मुतहर्रिक कहते हैं।
यह छन्द विद्या का सबसे छोटा और नया छन्द पाठकों को समझाने के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। क्योंकि इस छन्द में महारथ हाँसिल करने के बाद भी मैं अन्य छन्द दोहे, छप्पय, रोला, कुण्डलिया, चौपाई, सहजता से रचने लगा। उसके उपरान्त आज ग़ज़ल कहने में भी मुझे कोई दिक़्क़त नहीं होती है। यह दोहा परिवार का त्रिपदिक छन्द है। जनक छन्द की विशेषता है कि यह 64 रूपों में लिखा जा सकता है। प्रत्येक पंक्ति में तेरह मात्राएँ (ग्यारहवीं मात्रा प्रत्येक पंक्ति में अनिवार्य रूप से लघु) होनी चाहिये। अर्थात तीनों पंक्तियों में तेरह + तेरह + तेरह मात्राओं के हिसाब से उन्तालीस मात्राएँ होनी चाहियें। इस छन्द पर रचित मेरे कुछ जनक छंद देखें :—
जनक छंद सबसे सहज / (प्रथम चरण) १ १ १ २ १ १ १ २ १ १ १ = १३ मात्राएँ
मात्रा तीनों बन्द की / (दूसरा चरण) २ २ २ २ २ १ २ = १३ मात्राएँ
मात्र उन्तालीस महज / (प्रथम चरण) २ १ २ २ २ १ १ १ १ = १३ मात्राएँ
नए रचनाकारों हेतु जनक छन्द के मात्राओं की गणना (तख़्ती सहित) इसी लिए दी जी रही है कि किसी प्रकार के असमंजस की स्थिति विद्वानों में न रहे। इससे आशा करता हूँ कि नए रचनाकारों/पाठकों की छन्दों पर पकड़ मजबूत होगी :—
भारत का हो ताज तुम / जनक छन्द तुमने दिया / हो कविराज अराज तुम = (तीनों चरण)
२ १ १ २ २ २ १ १ १ / १११ २ १ १ १ २ १ २ / २ १ १ २ १ १ २ १ १ १ = (३९ मात्राएँ)
सुर-लय-ताल अपार है / जनक छन्द के जनक का / कविता पर उपकार है = (तीनों चरण)
१ १ १ १ २ १ १ २ १ २ / १ १ १ २ १ २ १ १ १ २ / १ १ २ १ १ १ १ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
जनक छन्द की रौशनी / चीर रही है तिमिर को / खिली-खिली ज्यों चाँदनी = (तीनों चरण)
१ १ १ २ १ २ २ १ २ / २ १ १ २ २ १ १ १ २ / १ २ १ २ २ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
‘छप्पय छन्द‘ हिंदी छन्द परिवार का पुराना छन्द है। ‘कुण्डलिया‘ की तरह यह भी छ: पंक्तियों का छन्द है। फ़र्क़ मात्र यही है कि ‘कुण्डलिया‘ छन्द की शुरूआत ‘दोहे‘ से होती है और तत्पश्चात चार पंक्तियां रोला की होतीं हैं। अंत में वही शब्द या शब्द समूह आना अनिवार्य है जिस चरण से ‘कुण्डलिया‘ शुरू होता है। उदाहरणार्थ निम्न कुण्डलिया देखें :—
जिसमें सुर–लय–ताल है / कुण्डलिया वह छंद // (पहली पँक्ति के दोनों चरणों में 13 + 11 = 24 मात्राएँ)
सबसे सहज–सरल यही / छह चरणों का बंद // (दूसरी पँक्ति के दोनों चरणों में 13 + 11 = 24 मात्राएँ)
छह चरणों का बंद / शुरू दोहे से होता // (तीसरी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
रोला का फिर रूप / चार चरणों को धोता // (चौथी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
महावीर कविराय / गयेता अति है इसमें // (पाँचवी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
हो अंतिम वह शब्द / शुरू करते हैं जिसमें // (छट्टी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
जबकि ‘छप्पय छन्द‘ में प्रथम चार पंक्तियों में रोला के चार चरण हैं। तत्पश्चात नीचे की दो पंक्तियाँ उल्लाला की होती हैं। जो कि क्रमश: 26 / 26 मात्राओं में होती हैं। यानि छप्पय छन्द में उल्लाला के अंतर्गत दोहा के विषम चरण की चार पंक्तियां होती हैं। जिनमे ग्यारहवीं मात्रा का लघु होना आवश्यक हैं। उदाहरणार्थ देखें :—
निर्धनता अभिशाप, बनी कडवी सच्चाई (पहली पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
वक्त बड़ा है सख्त, बढे पल–पल महंगाई (दूसरी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
पिसते रोज़ ग़रीब, हाय! क्यों मौत न आई (तीसरी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
“महावीर” कविराय, विकल्प न सूझे भाई (चौथी पँक्ति के दोनों चरणों में 11 + 13 = 24 मात्राएँ)
लोकतंत्र की नीतियाँ, प्रहरी पूंजीवाद की (पाँचवी पँक्ति के दोनों चरणों में 13 + 13 = 26 मात्राएँ)
भ्रष्टतंत्र की बोलियाँ, दोषी कडवे स्वाद की (छट्टी पँक्ति के दोनों चरणों में 13 + 13 = 26 मात्राएँ)
ऐसे ही हम लघु और दीर्घ स्वरों के आधार पर ग़ज़ल शा’इरी का भी मूल्यांकन करेंगे। तख़्ती करने से पहले हमें हिन्दी और उर्दू के छन्द विधान का भेद समझना होगा। हिन्दी छन्दों में मात्राएँ घटाई–बढ़ाई (कम–ज़ियादा) अथवा गिराई–उठाई नहीं जा सकती। जैसे:— हिन्दी में कोई को 2 + 2 = 4 मात्रा ही माना जायेगा। जबकि उर्दू में कोई को कई रूपों में गिना जाता है जैसे:— कुई 1 + 2 = 3 मात्रा; कोइ 2 + 1 = 3 मात्रा; कोई 2 + 2 = 4 मात्रा भी। मेरा 2 + 2 = 4 मात्रा; मिरा 1 + 2 = 3 मात्रा भी। तेरा 2 + 2 = 4 मात्रा; तिरा 1 + 2 = 3 मात्रा भी। कई उर्दू के शा’इर हिन्दी छन्दों में इसलिए चूक जाते हैं क्योंकि ग़ज़ल में मिली लघु-दीर्घ करने की छूट को वह दोहा, रोला, कुण्डलिया, छप्पय और चौपाई आदि में भी करते हैं। और एक अहम चीज़ पाठक विशेष ध्यान देकर इस चीज़ को समझें। अगर आप ग़ज़ल कह रहे हैं तो उर्दू–अरबी–फ़ारसी बहर के विधान से चलिए और यदि हिन्दी छन्दों में अपनी बात कह रहे हैं तो हिन्दी के नियमों का पालन कीजिये। इसलिए इस आलेख में मैंने हिन्दी छन्दों और उर्दू छन्दों का उदाहरण प्रस्तुत किया है। ताकि आपको एक सम्पूर्ण कवि के रूप में हिन्दी–उर्दू में मान्यता मिल सके। मेरा एक शेर देखें—
जमा शाइरी उम्रभर की है पूँजी
ये दौलत ही रह जाएगी पीढ़ियों तक
ये शेर बहरे “मुत़कारिब” पर रचा गया है। (1+2+2 x 4) यानि चार बार फ़ऊलुन [(1+2+2) x 4 बार] = बीस मात्राएँ प्रति पँक्ति ग़ज़ल में आएँगी। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि एक ग़ज़ल एक ही बह्र में कही जाएगी। यानि एक समान तरीक़े से पूरी ग़ज़ल में (लघु–दीर्घ) शब्दों को सही क्रम पे रखकर, उतनी ही मात्राएँ प्रति पँक्ति लानी होंगी। तभी आपकी ग़ज़ल को मान्यता मिल पायेगी। अन्यथा वह बहर से खारिज़ समझी जाएगी।
1+2+2+1+2+2+1+2+2+1+2+2
ज+मा+शा+इ+री+उम+र+भर+की+है+पूँजी
(यहाँ ‘है’ (लघु—1) का वज़्न गिरा है। जो शा’इरी के हिसाब से उचित है।)
1+2+2+1+2+2+1+2+2+1+2+2
ये+दौ+लत+ही+रह+जा+ए+गी+पी+ढ़ि+यों+तक
(यहाँ ‘ये’, ‘ही’, ‘ए’ (लघु—1) का वज़्न गिरा है। जो शा’इरी के हिसाब से उचित है।)
वैसे अच्छा शा’इर वही है जो कम-से-कम वज़्न गिरता हो अथवा दीर्घ मात्राओं के अंत में ही वज़्न गिरता हो। इसलिए नए शाइरों को उस्ताद शा’इर की आवश्यकता पड़ती है। निरन्तर अभ्यास और अपनी पंक्ति को स्वयं गा—गुनगुनाकर इस दोष को स्वतः पकड़ा जा सकता है।
उर्दू–अरबी–फ़ारसी बहर के ये आठ मूल अरकान (बाट, गण) हैं , जिनसे ही आगे चलकर बहरें बनीं। अनेक शा’इरों ने कुछ नई बहर भी ईजाद की हैं। ख़ैर वह विद्वानों के शोध का विषय है। लेख में यहाँ केवल प्रचलित बहर का ही ज़िक्र करेंगे।
अरकान—1.—फ़ा+इ+ला+तुन (2+1+2+2)
अरकान—2.—मु+त+फ़ा+इ+लुन (1+1+2+1+2)
अरकान—3.—मस+तफ़+इ+लुन (2+2+1+2)
अरकान—4.—मु+फ़ा+ई+लुन (1+2+2+2)
अरकान—5.—मु+फ़ा+इ+ल+तुन (1+2+1+1+2)
अरकान—6.—मफ़+ऊ+ला+त (2+2+2+1)
अरकान—7.—फ़ा+इ+लुन (2+1+2)
अरकान—8.—फ़+ऊ+लुन (1+2+2)
नए रचनाकार वज़्न उठाने-गिराने में कई चीज़ों का ध्यान रखें, ख़ासकर शब्दों के आगे–पीछे प्रयोग होने वाले आधे-अधूरे अक्षरों का अथवा संयुक्त वर्ण का। पहले बात चंद्र बिंदु की। चंद्र बिंदु को तख़्ती अथवा वज़्न में नहीं गिनते, जैसे:— चाँद, माँद, फाँद (2+1) आदि। संयुक्त वर्ण शब्द शुरू होने पर जो पहला अधूरा शब्द है उसकी गणना भी अलग से नहीं होती वह गुरू के साथ ही गिना जायेगा जैसे:— स्थान (2+1) ख़्वाब (2+1) ख़्याल (2+1) आदि। लेकिन ख़याल (1+2+1) आपने “ख़” को अलग से प्रयोग किया है तो वह (एक अतिरिक्त लघु +1 गिना जायेगा); संयुक्त वर्ण (जो एक दूसरे के साथ जुड़े हों) से पहले लघु को गुरु मे गिना जाता है। जैसे:— उम्मीद 2+2+1, अच्छाई 2+2+2 आदि। नए रचनाकार इसलिए संयुक्त वर्ण प्रयोग में हमेशा सावधानी बरतें। कई बार यही अशुद्धियाँ बेड़ागर्क कर देती हैं।
अंत में बात अब फ़ारसी में प्रचलित 19 बहर की, जो निम्न प्रकार से दी गई हैं।
बहर—1.—मुतकारिब [(1+2+2 x 4 बार) फ़ऊलुन चार बार यानि कुल जमा बीस (20) मात्राएँ]
बहर—2.—हज़ज [(1+2+2+2 x 4बार) मुफ़ाईलुन चार बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—3.—रमल [(2+1+2+2 x 4बार) फ़ाइलातुन चार बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—4.—रजज़ [(2+2+1+2 x 4बार) मसतफ़इलुन चार बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—5.—कामिल [(1+1+2+1+2 x 4बार) मुतफ़ाइलुन चार बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—6.—बसीत [(2+2+1+2, 2+1+2, 2+2+1+2, 2+1+2 x 2–2बार) मसतलुन + फ़ाइलुऩ + मसतलुन + फ़ाइलुऩ दो+दो बार यानि कुल जमा चौबीस (24) मात्राएँ]
बहर—7.—तवील [(1+2+2, 1+2+2+2, 1+2+2, 1+2+2+2 x 2–2बार) फ़ऊलुन + मुफ़ाईलुन दो+दो बार यानि कुल जमा चौबीस (24) मात्राएँ]
बहर—8.—मुशाकिल [(2+1+2+2, 1+2+2+2, 1+2+2+2 x 1–1–1बार) फ़ाइलातुन + मुफ़ाईलुन + मुफ़ाईलुन एक + एक + एक बार यानि कुल जमा इक्कीस (21) मात्राएँ]
बहर—9.—मदीद [(2+1+2+2, 2+1+2, 2+1+2+2, 2+1+2 x 2–2बार) फ़ाइलातुन + फ़ाइलुन दो+दो बार यानि कुल जमा चौबीस (24) मात्राएँ]
बहर—10.—मजतस [(2+2+1+2, 2+1+2+2, 2+2+1+2, 2+1+2+2 x 2–2बार) मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन दो + दो बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—11.—मजारे [(1+2+2+2, 2+1+2+2, 1+2+2+2, 2+1+2+2 x 2–2बार) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) दो + दो बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—12.—मुंसरेह [(2+2+1+2, 2+2+2+1, 2+2+1+2, 2+2+2+1 x 2–2बार) मसतफ़इलुन + मफ़ऊलात (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) दो + दो बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—13.—वाफ़िर [(1+2+1+1+2 x 4बार) मुफ़ाइलतुन (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) चार बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—14.—क़रीब [(1+2+2+2, 1+2+2+2, 2+1+2+2 x 1–1–1बार) मुफ़ाइलुन + मुफ़ाइलुन + फ़ाइलातुन (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) एक + एक + एक बार यानि कुल जमा इक्कीस (21) मात्राएँ]
बहर—15.—सरीअ [(2+2+1+2, 2+2+1+2, 2+2+2+1 x 1–1–1बार) मसतफ़इलुन + मसतफ़इलुन + मफ़ऊलात (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) एक + एक + एक बार यानि कुल जमा इक्कीस (21) मात्राएँ]
बहर—16.—ख़फ़ीफ़ [(2+1+2+2, 2+2+1+2, 2+1+2+2 x 1–1–1बार) फ़ाइलातुन + मसतफ़इलुन + फ़ाइलातुन (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) एक + एक + एक बार यानि कुल जमा इक्कीस (21) मात्राएँ]
बहर—17.—जदीद [(2+1+2+2, 2+1+2+2, 2+2+1+2 x 1–1–1बार) फ़ाइलातुन + फ़ाइलातुन + मसतफ़इलुन (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) एक + एक + एक बार यानि कुल जमा इक्कीस (21) मात्राएँ]
बहर—18.—मुक़ातज़ेब (2+2+2+1, 2+2+1+2, 2+2+2+1, 2+2+1+2 x 2–2बार) मफ़ऊलात मसतफ़इलुन (मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में) दो + दो बार यानि कुल जमा अट्ठाइस (28) मात्राएँ]
बहर—19.—रुबाई
इन्हीं बहरों में थोड़ी छेड़छाड़ करके मीटर को बढ़ा/घटा के अनेकों नई बहरें बनाई जा सकती हैं और बनाई भी जा चुकीं हैं। परम आदरणीय श्री आर. पी. शर्मा महर्षि जी ने अपनी पुस्तकों में 32 बहरों के प्रमाण सहित प्रस्तुत किये हैं। इनकी संख्या और भी हो सकती है। सूरते–मुज़ाहिफ़ यानि ‘अरकान’ की बिगड़ी हुई शक्ल में। जैसेकि ‘फ़ाइलातुन सालिम’ शक्ल है और ‘फ़ाइलुन मुज़ाहिफ़।’ सालिम शक्ल से मुज़ाहिफ़ शक्ल बनाने के लिए जो तरकीब है उसको ज़िहाफ़ कहते हैं। यानि हरेक बहर या तो सालिम रूप में इस्तेमाल होगी या मुज़ाहिफ़ में, उपरोक्त प्रचलित बहरों में से कई बहरें सालिम और मुज़ाहिफ़ दोनों रूप मे इस्तेमाल होती हैं। बहर ग्यारह से अट्ठारह तक सभी बहर मात्र सूरते–मुज़ाहिफ़ में ही आएँगी।
फ़िल्मी गीतों में भी प्राय: ग़ज़ल की इन प्रचलित बहर का प्रयोग होता है। उन्हें ग़ज़ल इसलिए नहीं कह सकते कि गीतों में मुखड़े से लेकर अन्तरों तक में पँक्तियों की मात्राएँ घटाई और बढ़ाई जा सकती हैं। जबकि ग़ज़ल में हर शेर दो पँक्तियों का होता है। हर शेर अपने आप में स्वतन्त्र होता है। बस काफ़िया और रदीफ़ का निभाव ही उन शेरों को एक ग़ज़ल में परस्पर जोड़े रखता है। ग़ज़ल के मुखड़े को मतला कहते हैं। जिनमें काफ़िया–रदीफ़ का निभाव आवश्यक होता है। हिन्दी में कहें तो मिस्रे सानुप्रास होते हैं। और ग़ज़ल के अन्तिम शेर जिसमें शा’इर का नाम, उपनाम जुड़ा हो ‘मक़्ता’ कहलाता है। अगर नाम न हो तो उसे ग़ज़ल का केवल ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शाइर को यदि हिन्दी–उर्दू दोनों लिपियों का ज्ञान हो तो वह छन्दों में होने वाले कई दोषों से बच सकता है, क्योंकि नुक्ते के हेर फेर से खुदा जुदा हो जाता है। किसी दूसरे आलेख में रुबाई और नज़्म इत्यादि की जानकारी देने का प्रयास किया जायेगा। फ़िलहाल ख़ाकसार को मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर के साथ आलेख विराम करने की इज़ाज़त दें कि—
बू-ए-गुल ,नाला-ए-दिल, दूद-द-चराग़-ए-महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला