हिंदी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
दम तोड़ती कलम ,आह भरते कलम के सिपाही
#पण्डितपीकेतिवारी (सह-सम्पादक)
30 मई देश में हिंदी पत्रकारिता के लिहाज से सबसे अहम दिन माना जाता है क्योंकि इसी दिन 1826 में हिंदी भाषा का पहला समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ आया था, जिसने भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी। इसलिए हर वर्ष की 30 मई को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
पत्रकारिता आज दुनिया का अभिन्न अंग बन चुकी है। लोकतंत्र में तो मीडिया को ‘चौथा स्तंभ’ का दर्जा प्राप्त है। दुनिया में पत्रकारिता की शुरुआत 15वीं में मानी जाती है। भारत में पत्रकारिता का आगाज 1780 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ, लेकिन हिंदी पत्रकारिता को शुरू होने ज्यादा समय लगा। इसकी शुरुआत वर्ष 1826 में पहले हिंदी समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ के साथ हुई।
एक बार फिर हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाने की तैयारी में हैं. स्मरण कर लेते हैं कि कैसे संकट भरे दिनों में भारत में हिन्दी पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था तो आज यह विश्लेषण भी कर लेते हैं कि कैसे हम सम्मान को दरकिनार रखकर सहारे की पत्रकारिता कर रहे हैं. 1826 से लेकर 2016 तक के समूचे परिदृश्य की मीमांसा करते हैं तो सारी बातें साफ हो जाती हैं कि कहां से चले थे और कहां पहुंच गए हैं हम. इस पूरी यात्रा में पत्रकारिता मीडिया और पत्रकार मीडियाकर्मी बन गए. इन दो शब्दों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि हम सम्मान की नहीं, सहारे की पत्रकारिता कर रहे हैं. जब हम सहारे की पत्रकारिता करेंगे तो इस बात का ध्यान रखना होगा कि सहारा देने वाले के हितों पर चोट तो करें लेकिन उसका हित करने में थोड़ा लचीला बर्ताव करें. मीडिया का यह व्यवहार आप दिल्ली से देहात तक की पत्रकारिता में देख सकते हैं.
शुचिता की चर्चा भी गाहे-बगाहे होती रहती है वह भी पत्रकारिता में. मीडिया में शुचिता और ईमानदारी की चर्चा तो शायद ही कभी हुई हो. इसका अर्थ यह है कि पत्रकारिता का स्वरूप भले ही मीडिया हो गया हो लेकिन आज भी भरोसा पत्रकारिता पर है. फिर ऐसा क्या हुआ कि पत्रकारिता का लोप होता चला जा रहा है? इस पर विवेचन की जरूरत है क्योंकि एक समय वह भी था जब पत्रकारिता में आने वाले साथियों को डिग्री-डिप्लोमा की जरूरत नहीं होती थी. जमीनी अनुभव और समाज की चिंता उनकी लेखनी का आधार होती थी. आज टेक्रालॉजी के इस दौर में डिग्री-डिप्लोमा का होना जरूरी है. पत्रकारिता कभी जीवनयापन का साधन नहीं रही लेकिन आज भी पत्रकारिता में नौकरी नहीं, मीडिया में नौकरी मिलती है जहां हम मीडिया कर्मी कहलाते हैं. एक सांसद महोदय को इस बात से ऐतराज है कि मीडियाकर्मियों को जितनी तनख्वाह मिलती है, वह सांसदों से अधिक है और इस आधार पर वे सांसदों का वेतन बढ़ाने की मांग करते हैं. मुझे याद नहीं कि आज से दस-बीस साल पहले तक कभी इस तरह की तुलना होती हो. हां, ऐेसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जब पत्रकारों ने ऐसी खैरात को लात मार दी है. और ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है लेकिन आज भी खत्म नहीं.
पत्रकारिता देश एवं समाज हित के लिए स्वस्र्फूत चिंतन है. पत्रकार के पास पहनने, ओढऩे-बिछाने और जीने के लिए पत्रकारिता ही होती है. उसकी भाषा समृद्ध होती है और जब वह लिखता है तो नश्तर की तरह लोगों के दिल में उतर जाती है. हालांकि मीडिया के इस बढ़ते युग में आज पेडन्यूज का आरोप लगता है तो बवाल मच जाता है. जांच बिठायी जाती है और निष्कर्ष वही ढाक के तीन पांत होता है. लेकिन कभी किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि इम्पेक्ट फीचर के नाम पर चार और छह पन्ने के विज्ञापन दिए जाते हैं जिसे अखबार सहर्ष प्रकाशित करते हैं. यह जानते हुए भी कि इसमें जो तथ्य और आंकड़े दिए गए हैं, वे बेबुनियाद हैं तथा बहुत हद तक काल्पनिक लेकिन हम इसकी पड़ताल नहीं करते हैं क्योंकि इन्हीं के सहारे प्रकाशन संभव हो पा रहा है. आधुनिक मशीनें और आगे निकल जाने की होड़ में खर्चों की पूर्ति करने का यही सहारा है. यह भी मान लिया जाए तो क्या इसके आगे विज्ञापनों के रूप में छपे तथ्यों की पड़ताल कर खबर नहीं छापना चाहिए? इस पर एक वरिष्ठ से चर्चा हुई तो ऐसा करने को उन्होंने नैतिकता के खिलाफ बताया. उनका तर्क था कि जिस चीज का आप मूल्य ले चुके हैं, उसकी पड़ताल नैतिक मूल्यों के खिलाफ होगा. मैं हैरान था कि सहारे की मीडिया के दौर में नैतिक मूल्यों की चिंता. संभव है कि उनकी बात वाजिब हो लेकिन इस बदलते दौर में हमें पत्रकारिता की भाषा, शैली एवं उसकी प्रस्तुति पर चिंतन कर लेना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी को हम कुछ दे सकें और नहीं तो हर वर्ष हम यही बताते रहेंगे कि 30 मई को भारत का पहला हिन्दी समाचार पत्र का प्रकाशन हुआ था.
अपने इतिहास का स्मरण करना भला-भला सा लगता है. और बात जब हिन्दी पत्रकारिता की हो तो वह रोमांच से भर देता है. वह दिन और वह परिस्थिति कैसी होगी जब पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने हिन्दी अखबार आरंभ करने का दुस्साहस किया. तमाम संकटों के बाद भी वे आखिरी दम तक अखबार का प्रकाशन जारी रखा. अंतत: साल भर के छोटे से समय में अखबार का प्रकाशन बंद करना पड़ा. हिन्दी पत्रकारिता में मील के पत्थर के रूप में आज हम ‘उदंत मार्तंड’ का स्मरण करते हैं. हिन्दी के विलग अन्य कई भाषाओं में अखबारों का प्रकाशन हुआ लेकिन ‘उदंत मार्तंड’ ने जो मुकाम बनाया, वह आज भी हमारे लिए आदर्श है. हालांकि जेम्स आगस्टक हिक्की के बंगाल गजट को भारत का पहला प्रकाशन कहा जाता है और पीडि़त सम्पादक के रूप में उनकी पहचान है. इन सबके बावजूद ‘उदंत मार्तंड’ का कोई सानी नहीं हुआ.
भारतीय पत्रकारिता की जननी बंगाल की धरती ही है। हिंदी पत्रकारिता का जन्म और विकास भी बंगाल की धरती में ही हुआ। भारतीय भाषाओं में पत्रों के प्रकाशन होने के साथ ही भारत में पत्रकारिता की नींव सुदृढ़ बनी थी। इसी बीच हिंदी पत्रकारिता का भी उदय हुआ। यह उल्लेखनीय बात है कि हिंदी पत्रकारिता का उद्गम स्थान बंगाली भाषा-भाषी प्रदेश (कलकत्ता) रहा। भारत में समाचार पत्रों के प्रकाशन का श्रीगणेश अभिव्यक्ति की आज़ादी की उमंगवाले विदेशी उदारवादियों ने किया। इसके पूर्व ही पश्चिमी देशों तथा यूरोपीय देशों में पत्रकारिता की महत्ता को स्वीकारा गया था। हिक्की या बंकिघम के आरंभिक साहसपूर्ण प्रयासों से भारत में पत्रकारिता की नींव पड़ी थी। वैसे वहाँ शिलालेखों, मौखिक आदि रूपों में सूचना संप्रेषण का दौर बहुत पहले शुरू हुआ था, पर आधुनिक अर्थों में पत्रकारिता का उदय औपनिवेशिक शासन के दौरान ही हुआ। अंग्रेज़ी शिक्षा की पृष्ठभूमि पर ही जेम्स अगस्टस हिकी के आरंभिक प्रयास ‘हिकीज़ बंगाल गज़ट’ अथवा ‘कलकत्ता जेनरल अडवर्टैज़र’ के रूप में फलीभूत हुआ था। देशी पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राय माने जाते हैं। भारतीय विचारधारा और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ प्राचीन-नवीन सम्मिश्रण के एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में उभरकर उन्होंने एक स्वस्थ परंपरा का सूत्रपात किया। उस समय तक के भारतीय परिवेश में आधुनिक आध्यात्मिकता का स्वर भरने वाले रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद आदि मनीषियों से भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में जनजागृति और संप्रेषण माध्यम रूपी पत्रकारिता का उदय हुआ था ।
अंग्रज़ों की स्वार्थपूर्ण शासन के दौर में ही भारतीय भाषा पत्रकारिता की नींव भी पड़ी थी। जन चेतना का संघर्षपूर्ण स्वर उभारने के लक्ष्य से ही पत्रकारिता का उदय हुआ। पत्रकारिता के उद्भव की स्थितियों एवं कारणों का वर्णन करते हुए डॉ. लक्ष्मीकांत पांडेय ने लिखा है – “पत्रकारिता किसी भाषा एवं साहित्य की ऐसी इंद्रधनुषी विद्या है, जिसमें नाना रंगों का प्रयोग होने पर भी सामरस्य बना रहता है । पत्रकारिता, जहाँ एक ओर समाज के प्रत्येक स्पंदन की माप है, वहीं विकृतियों की प्रस्तोता, आदर्श एवं सुधार के लिए सहज उपचार । पत्रकारिता जहाँ किसी समाज की जागृति का पर्याय है, वहीं उसमें उठ रही ज्वालामुखियों का अविरल प्रवाह उसकी चेतना का प्रतीक भी है। पत्रकारिता एक ओर वैचारिक चिंतन का विराट फलक है, तो दूसरी ओर भावाकुलता एवं मानवीय संवेदना का अनाविल स्रोत। पत्रकारिता जनता एवं सत्ता के मध्य यदि सेतु है तो सत्ता के लिए अग्नि शिखा और जनता के लिए संजीवनी। अतः स्वाभाविक है कि पत्रकारिता का उदय उन्हीं परिस्थितियों में होता है, जब सत्ता एवं जनता के मध्य संवाद की स्थिति नहीं रहती या फिर जब जनता अंधेरे में और सत्ता बहरेपन के अभिनय में लीन रहती है ।”
भारत में अंग्रेज़ो की दमनात्मक निति के विरुद्ध आवाज के रूप में स्वाधीनता की प्रबल उमंग ने पत्रकारिता की नींव डाली थी। उसके फलीभूत होने के साथ स्वदेशी भावना का अंकुर भी उगने लगा। कलकत्ता में भारतीय भाषा पत्रकारिता के उदय से इन भावनाओं को उपयुक्त आधार मिला था। इस परंपरा में कलकत्ता के हिंदी भाषियों के हृदय में भी पत्रकारिता की उमंगे उगने लगीं। अपनी भाषा के प्रति अनुराग और जनजागृति लाने के महत्वकांक्षी पं. जुगल किशोर शुक्ल के साहसपूर्ण आरंभिक प्रयासों से हिंदी पत्रकारिता की नींव पड़ी। कलकत्ता ( वर्तमान कोलकोता) के कोलू टोला नामक महल्ले के 37 नंबर आमड़तल्ला गली से जुगल किशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदंतमार्तंड नामक एर हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। यहाँ यह भी विवेचनीय बात है कि ‘उदंत मार्तंड’ से पहले भी हिंदी पत्रों के प्रकाशन अस्तित्व में आया था और एक पत्रिका के कुछ पन्नों पर हिंदी को स्थान दिया गया था। “समाचार दर्पण” नामक इस पत्रिका का प्रकाशन भी बंगभूमि से 1819 में हुवा था।
30 मई,1826 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय तिथि है जिस दिन सर्वथा मौलिक प्रथम हिंदी पत्र के रूप में ‘उदंत मार्तंड’ का उदय हुआ था। इसके संपादक और प्रकाशक कानपुर के जुगल किशोर ही थे। पंडित युगल किशोर शुक्ला जी कानपुर के चमनगंज के निकट प्रेम नगर के रहने वाले थे और कोलकाता ( तत्कालीन कलकत्ता) के दीवानी न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस करते थे।
साप्ताहिक ‘उदंत मार्तांड’ के मुख्य पृष्ठ पर शीर्षक के नीच जो संस्कृत की पंक्तियाँ छपी रहती थीं उनमें प्रकाशकीय पावन लक्ष्य निहित था । पंक्तियाँ यों थीं –
“दिवा कांत कांति विनाध्वांदमंतं
न चाप्नोति तद्वज्जागत्यज्ञ लोकः ।
समाचार सेवामृते ज्ञत्वमाप्तां
न शक्नोति तस्मात्करोनीति यत्नं ।।”
देश और हिंदी प्रेम की महत्वकांक्षा और ऊँचे आदर्श से पं. जुगल किशोर ने ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन आरंभ किया था, पर सरकारी सहयोग के अभाव में, ग्राहकों की कमी आदि प्रतिकूल परिस्थितियों में 4 दिसंबर, 1827 को ही लगभग डेढ़ साल की आयु में हिंदी का प्रथम पत्र का अंत हो गया। समाचार पत्र को गैर हिंदी भाषी क्षेत्र होने की वजह से पाठक नहीं मिले और सरकार की दमनात्मक निति ने डाक का उस समय जो पंजीयन होता वह नहीं होने दिया था।
जिस संपादकीय उद्घोष के साथ समाप्त हुआ, वह आज भी हिंदी पत्रकारिता के संघर्षपूर्ण अस्तित्व के प्रतीकाक्षरों की पंक्तियों के रूप में उल्लेखनीय हैं–
“आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तंड उदंत ।
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अंत ।।”
पं. जुगल किशोर शुक्ल ने अपनी आंतरिक व्यथा को समेट कर उक्त पंक्तियों की अभिव्यक्ति दी थी। इसके बाद कई प्रयासों से धीरे-धीरे हिंदी पत्रों का प्रकाशन-विकास होता रहा। परंतु पंडित युगल किशोर शुक्ला ने हार न मानी और वर्ष 1850 में उन्होंने पुनः हिंदी की पत्रिका शुरू किया जिसका नाम “सामदंड मार्तण्ड” था। यह लंबे समय तक हिंदी पत्रकारिता को जीवित रखे था और इसका प्रकाशन 1919 तक हुवा। इसी परंपरा में जून, 1854 में कलकत्ते से ही श्याम सुंदर सेन नामक बंगाली सज्जन के संपादन में हिंदी का प्रथम दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ था। हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि होने का गौरव-चिह्न कलकत्ते के मुकुटमणि के रूप में सदा प्रेरणा की आभा देते हुए हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय है।
कलकत्ता से बाहर हिंदी प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता की शुरुवात का श्रेय वाराणसी (काशी) को जाता है। वाराणसी ( काशी) तत्कालीन बनारस से भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र का पहला हिंदी अख़बार निकलने वाला हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’ था, जिसका प्रकाशन 1845 ई. में काशी में आरंभ हुआ था । जिसने हिंदी पत्रकारिता के रूप में 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था।
आरंभिक हिंदी-पत्रकारिता के आदि उन्नायकों का आदर्श बड़ा था, किंतु साधन-शक्ति सीमित थी। वे नई सभ्यता के संपर्क में आ चुके थे और अपने देश तथा समाज के लोगों को नवीनता से संपृक्त करने की आकुल आकांक्षा रखते थे । उन्हें न तो सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त था और न तो हिंदी-समाज का सक्रिय सहयोग ही सुलभ था। प्रचार-प्रसार के साधन अविकसित थे। संपादक का दायित्व ही बहुत बड़ा था क्योंकि प्रकाशन-संबंधी सभी दायित्व उसी को वहन करना पड़ता था। हिंदी में अभी समाचार पत्रों के लिए स्वागत भूमि नहीं तैयार हुई थी। इसलिए इन्हें हर क़दम पर प्रतिकूलता से जूझना पड़ता था और प्रगति के प्रत्येक अगले चरण पर अवरोध का मुक़ाबला करना पड़ता था। तथापि इनकी निष्ठा बड़ी बलवती थी। साधनों की न्यूनता से इनकी निष्ठा सदैव अप्रभावित रही। आर्थिक कठिनाइयों के कारण हिंदी के आदि पत्रकार पं. जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन बंद कर दिया था किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आर्थिक कठिनाइयों ने उनकी निष्ठा को ही खंडित कर दिया था । यदि उनकी निष्ठा टूट गई होती तो कदाचित् पुनः पत्र-प्रकाशन का साहस न करते। हम जानते हैं कि पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 1850 में पुनः ‘सामदंत मार्तंड’ नाम का एक पत्र प्रकाशित किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतिकूल परिस्थिति से लड़ने का उनमें अदम्य उत्साह था। उस युग के पत्रकारों की यह एक सामान्य विशेषता थी। युगीन-चेतना के प्रति ये पत्र सचेत थे और हिंदी-समाज तथा युगीन अभिज्ञता के बीच सेतु का काम कर रहे थे।
साल 1826, दिनांक 30 मई को जब हम मुडक़र देखते हैं तो लगता है कि साल 2019, दिनांक 30 मई का सफर तो हमने पूरा कर लिया लेकिन वो तेज और तेवर खो दिया है जिसके बूते ‘उदंत मार्तंड’ आज भी हमारे लिए आदर्श है. इस सफर में प्रिंटिंग तकनीक का बहुविध विस्तार हुआ. घंटे का समय लगाकर एक पेज तैयार करने की विधि अब मिनटों में तैयार होने लगी. अखबार नयनाभिराम हो गए लेकिन इसके साथ ही कंटेंट की कमी खलने लगी. ‘तुमको हो जो पसंद वही बात करेंगे’ कि तर्ज पर लिखा जाने लगा. ना विचार बचे, ना समाचार. अखबार ना होकर सूचनामात्र का कागज बन गया. यहीं पर मिशन खोकर प्रोफेशन और अब कमीशन का धंधा बनकर रह गया है. बात तल्ख है लेकिन सच है. बदला लेने के बजाय बदलने की कोशिश करें तो भले ही ‘उदंत मार्तंड’ के सुनहरे दिन वापस ना ला पाएं लेकिन ‘आज’ को तो नहीं भूल पाएंगे. जनसत्ता को इस क्रम में रख सकते हैं.
खैर, पराधीन भारत में अंग्रेजों की नाक में दम करने वाली हिन्दी पत्रकारिता स्वाधीनता के बाद से बहुत बिगड़ी नहीं थी. नए भारत के निर्माण के समय पहरेदार की तरह हिन्दी पत्रकारिता शासन और सत्ता को आगाह कर रही थी. सहिष्णुता का माहौल था. सत्ता और शासन अखबारों की खबरों को गंभीरता से लेते थे और एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव था. ‘उदंत मार्तंड’ अंग्रेजों की ठुकाई कर रहे थे और आम भारतीय को जगाने का कार्य भी कर रहे थे. लगभग ऐसा ही चरित्र स्वाधीन भारत में कायम था. सीमित संसाधनों में अखबारों का प्रकाशन सीमित संख्या में था और पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले लोग आम लोग नहीं हुआ करते थे. एक किस्म की दिव्य शक्ति उनमें थी. वे सामाजिक सरोकार से संबद्ध थे. कहते हैं विस्तार के साथ विनाश भी दस्तक देती है. विनाश न सही, कुछ गड़बड़ी का संदेश तो बदलते समय की पत्रकारिता दे गई. साल 1975 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे काला समय था. तानाशाह के रूप में तब की सत्ता और शासन ने सारे अधिकार छीन लिए. जैसे-तैसे ये दिन बीते लेकिन इस थोड़े से समय में हिन्दी पत्रकारिता का चाल, चेहरा और चरित्र बदलने लगा था. जो सत्ता और शासन के पैरोकार हो गए, वे चांदी काटने लगे लेकिन जो पहरेदार की भूमिका में रहे, वे घायल होते रहे.
एक समय भाजपा के रसूखदार चेहरा रहे लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि-‘आपातकाल में पत्रकारिता को झुकने के लिए कहा गया तो वे रेंगने लगे.’ उनकी बात को सौफीसदी सच नहीं थी लेकिन सौफीसदी गलत भी नहीं. इंदौर से प्रकाशित बाबूलाभचंद्र छजलानी का अखबार नईदुनिया ने विरोधस्वरूप सम्पादकीय पृष्ठ कोरा छोड़ दिया. ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन सच यही है कि तब से झुकते-झुकते अब रेंगने लगे हैं. हिन्दी पत्रकारिता के लिए यही संक्रमणकाल था. यही वह समय है जब हिन्दी पत्रकारिता के मंच पर पीत पत्रकारिता ने अपनी जगह बनायी. और शायद यही वक्त था जब समाज का पत्रकारिता से आहिस्ता आहिस्ता भरोसा उठने लगा. आज की हालत में तो पत्रकारिता के जो हाल हैं, सो हैं. अब यह कहना मुश्किल है कि कौन सा अखबार, किस सत्ता और शासन का पैरोकार बन गया है या बन जाएगा.
हिन्दी पत्रकारिता ने ‘उदंत मार्तंड’ के समय जो सपने देखे थे, वो भले ही चूर-चूर ना हुए हों लेकिन टूटे जरूर हैं. जख्मी जरूर हुआ है. हिन्दी पत्रकारिता के जख्मी होने का कारण एक बड़ा कारण इस सफर में सम्पादक संस्था का विलोपित हो जाना है. सम्पादक के स्थान पर मैनेजर का पदारूढ़ हो जाना हिन्दी पत्रकारिता का सबसे बड़ा संकट है. संवाद और पाठन तो जैसे बीते जमाने की बात हो गई है. हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि प्रकाशनों की संख्या सैकड़ों में बढ़ी है लेकिन कटेंट को देखें तो हम शर्मसार हो जाते हैं. अखबारों का समाज पर प्रभाव इस कदर कम हुआ है कि औसतन 360 दिनों के अखबारों में एकाध बार किसी खबर का कोई प्रभाव होता है. खबर पर प्रतिक्रिया आती है अथवा शासन-सत्ता संज्ञान में लेकर कार्यवाही करता है तो अखबार ‘खबर का इम्पेक्ट’ की मुहर लगाकर छापता है. इस तरह अखबार खुद इस बात का हामी भरता है कि बाकि के बचे 359 दिनों में छपी खबरों का कोई प्रभाव नहीं है.
ऐसा क्यों होता है? इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है. चूंकि सम्पादक की कुर्सी पर मैनेजर विराजमान है तो वह इस इम्पेक्ट खबर को भी बेचना चाहता है. उसके लिए खबर एक प्रोडक्ट है, जैसा कि अखबार एक प्रोडक्ट है. अब अखबारों के पाठक नहीं होते हैं. ग्राहक होते हैं. ग्राहकों को लुभाने-ललचाने के लिए बाल्टी और मग दिए जाते हैं. एक नया चलन ‘नो निगेटिव खबर’ का चलन पड़ा है. निगेटिव से ही तो खबर बनती है और जब सबकुछ अच्छा है तो काहे के लिए अखबारों का प्रकाशन. हिन्दी पत्रकारिता की दुर्दशा मैनेजरों ने की है. भाषा की तमाम वर्जनाओं को उन्होंने ध्वस्त करने की कसम खा रखी है. हिन्दी अथवा अंग्रेजी के स्थान पर हिंग्लिश का उपयोग-प्रयोग हो रहा है. तिस पर तुर्रा यह कि ‘जो दिखता है, वह बिकता है’. अर्थात एक बार अखबार को बाजार का प्रोडक्ट बनाता दिखता है.
हिन्दी पत्रकारिता की दुर्दशा में टेलीविजन पत्रकारिता की भूमिका भी कम नहीं है. जब टेलीविजन का प्रसारण आरंभ हुआ तो लगा कि अखबारों की दुनिया सिमट जाएगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टे दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गए. बल्कि अखबार भी टेलीविजन बनने की कोशिश में लग गए. टेलीविजन की कोई भाषा नहीं होती है तो अखबारों ने अपनी भाषा की भेंट बाजार की मांग के अनुरूप चढ़ा दी. जो सनसनी टेलीविजन के पर्दे पर मचती है. हंगामा होता है, वह दिखाने की कोशिश अखबारों ने की लेकिन दोनों माध्यमों की टेक्रॉलाजी अलग अलग होने के कारण अखबारों के लिए यह संभव नहीं हो पाया. प्रस्तुतिकरण, छपाई और तस्वीरों में हिन्दी पत्रकारिता टेलीविजन का स्वरूप धारण करने की कोशिश करने लगी. कल तक पठनीय अखबार, आज का दर्शनीय अखबार हो गया. अखबारों की ‘स्टाइलशीट’ कहीं धूल खा रही होगी. नयी पीढ़ी को तो यह भी पता नहीं होगा कि स्टाइलशीट क्या है और इसका महत्व क्या है?
हिन्दी पत्रकारिता के कुरू कुरू स्वाहा करने में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थानों की भूमिका भी बड़ी रही है. दादा माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता शिक्षण संस्थाओं के पक्षधर थे. किन्तु वर्तमान में भोपाल से दिल्ली तक संचालित पत्रकारिता संस्थाएं केवल किताबी ज्ञान तक सिमट कर रह गई हैं. व्यवहारिक ज्ञान और संवाद कला तो गुमनामी में है. ज्यादतर पत्रकारिता के शिक्षकों के पास व्यवहारिक अनुभव नहीं है. नेट परीक्षा पास करो, पीएचडी करो और शिक्षक बन जाओ. निश्चित रूप से पत्रकारिता की शिक्षा भी प्रोफेशनल्स कोर्स है और इस लिहाज से यह उत्कृटता मांगती है लेकिन उत्कृष्टता के स्थान पर पत्रकारिता शिक्षा प्रयोगशाला बनकर रह गई है. इस प्रयोगशाला से पत्रकार नहीं, मीडियाकर्मी निकलते हैं और एक कर्मचारी से आप क्या उम्मीद रखेंगे? कल्पना कीजिए कि पंडित जुगलकिशोर शुक्ल, राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, तिलक, पराडक़रजी जैसे विद्वतजन मीडियाकर्मी होते तो क्या आज हम ‘उदंत मार्तंड’ का स्मरण कर रहे होते? शायद नहीं लेकिन मेरा मानना है कि समय अभी गुजरा नहीं है. पत्रकारिता के पुरोधा और पुरखों को जागना होगा और पत्रकारिता की ऐसी नई पौध को तैयार करना होगा जो राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, मायाराम सुरजन, लाभचंद्र छजलानी के मार्ग पर चलने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें. और कुछ नहीं होगा तो फिर अगले साल 30 मई को स्मरण करेंगे कि आज ही के दिन हिन्दी का पहला साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन आरंभ हुआ था.