सोच
सोच – सोच में फर्क होता है,
कुछ अपनी सोच को सही समझते हैं ,
कुछ अपनी सोच दूसरों पर हावी करते हैं ,
कुछ अपनी सोच की गलतियों को छुपाने का प्रयत्न
करते रहते हैं ,
कुछ कुतर्क का सहारा लेकर दूसरों की सोच गलत सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं ,
उन्हें पता नहीं है कि एक परिमार्जित सोच के लिए
स्वस्थ मानसिकता की आवश्यकता होती है ,
जो उनके विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण का निर्माण
करती है,
जो काल्पनिक मतों के स्थान पर व्यावहारिक सत्य के धरातल पर संज्ञान एवं प्रज्ञा शक्ति के आधार पर
आकलन करती है ,
जो समूह धारणा से अप्रभावित व्यक्तिगत गहन मंथन से व्यक्तिगत सोच के सत्याधार का गठन करती है ,
जो समय-समय पर सकारात्मक एवं नकारात्मक तत्वों का चिंतन कर व्यक्तिगत सोच का परिमार्जन करती है ,
जिससे व्यक्तिगत सोच को सत्यता की कसौटी पर
खरी सिद्ध कर सके ,
एवं पूर्व निर्मित कल्पित धारणाओं के समक्ष अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर सके।