बहुजन अथवा ओबीसी साहित्य बनाम दलित साहित्य / मुसाफ़िर बैठा
ओबीसी साहित्य अथवा बहुजन साहित्य की अवधारणा को हिंदी साहित्य के धरातल पर उगाने और जमाने का प्रयास बिहार के कुछ लोग और उनका मंच बनी फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के जरिए करीब पिछले दस वर्ष पूर्व शुरू हुआ था. यह हिंदी में दलित साहित्य की सफलता एवं स्वीकृति से प्रभावित होकर पिछड़ों द्वारा की जा रही कवायद है. अतः दलित साहित्य के उद्भव एवं स्वरूप को मद्देनजर रखकर ही इन नई धारणाओं के उचित अनुचित होने पर विचार करना उचित होगा. प्रयास यह हो रहा है कि पहले नामकरण की व्यापक स्वीकृति पा ली जाए फ़िर, उस नाम के तहत अटने वाले बच्चों का जन्म करवा लिया जाएगा! अथवा, यह भी कि नामकरण को स्वीकृति मिलने के बाद बच्चों की खोज कर उसके अंदर समाहित कर लिया जाएगा! (यहाँ बच्चे = ओबीसी साहित्य) जबकि दलित साहित्य के साथ यह पैदाइश से पहले नाम रखने की बात नहीं है. मराठी क्षेत्र में दलितों, पिछड़ों एवं अन्य प्रगतिशील जनों के संयुक्त प्रयास से चले जमीनी पैंथर आंदोलन के तले दलित साहित्य का उद्भव हुआ, आंदोलन से जुड़े दलित जनों ने अपने दुःख दर्दोदर्दों को कविता, कहानी और सबसे बढ़कर आत्मकथाओं के माध्यम से वाणी दी जिन्हें अलग से दलित साहित्य के रूप में रेखांकित किया गया. यह रेखांकन भी दक्षिण अफ़्रीकी नस्लभेद के विरुद्ध चले ब्लैक मूवमेंट से उपजे ब्लैक लिटरेचर की तर्ज़ पर उसके प्रभाव में किया गया जबकि ओबीसी साहित्य के एक मुख्य पैरोकार और सिद्धांतकार प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह दलित साहित्य को कबीर के विचार से उपजा बताते हैं. जहाँ तक मुझे मालूम है इस सिंह जी ने दलित साहित्य से हमेशा विरक्ति ही बरती है और, डा. आंबेडकर के जिक्र और गुणकथन से प्रायः बचने रहे हैं, अतः ये अपनी सुविधा अनुसार, कबीर को ओबीसी बताते हुए दलित साहित्य की नींव को ओबीसी/पिछड़ा आधार का साबित करना चाहते हैं. मसलन, फॉरवर्ड प्रेस के पन्ने पर जब प्रमोद रंजन (ओबीसी/बहुजन साहित्य के एक अन्य मुख्य पैरोकार और सिद्धांतकार) दलित साहित्य की नींव के कबीर, जोतिबा फूले और डॉ आम्बेडकर के विचारों पर टिकी होना बताते हुए कहते हैं कि इनमें से कबीर (जुलाहा) और जोतिबा फूले (माली) अतिशूद्र यानी दलित नहीं थे बल्कि वे शूद्र परिवार में पैदा हुए थे, जो आज संवैधानिक रूप से ओबीसी समुदाय का हिस्सा हैं, तो अंशतः सत्यबयानी करते हुए भी राजेन्द्र प्रसाद सिंह की राजनीति को ही वे पूर रहे होते हैं. कारण कि वे बड़ी चालाकी से यहाँ सबसे बड़ा नाम, जो जाहिर है, ओबीसी नहीं है, महामना बुद्ध का लेना सायास छोड़ देते हैं. प्रसंगवश बताते चले कि कबीर का सब कुछ दलित चेतना के धरातल पर स्वीकार्य नहीं हो सकता, उनके विचारों में से चुन-बिन कर ही ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि दलित साहित्य बिलकुल अनीश्वरवादी साहित्य है. जबकि कबीर के यहाँ निर्गुण ईश्वर समर्थक अध्यात्म भी कम नहीं है जो बहुजनों के काम का नहीं है. हां, बाबा साहेब आम्बेडकर भी बुद्ध, कबीर एवं फुले के विचारों के ऋणी जरूर हैं.
दलित साहित्य का स्वतंत्र अस्तित्व अब लगभग सर्वमान्य है. सरकारी स्कूलों-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों, सभा-सेमिनारों में भी अब दलित साहित्य की रचनाओं के रूप में आत्मकथा, आत्मकथा अंश, नाटक, आलेख, कविता, कहानी आदि लग रही हैं. और, यह मान्यता दलित साहित्यकारों ने कोई जोर-जबरदस्ती से नहीं प्राप्त की है बल्कि अपनी रचनाओं की अलग पहचान व विशिष्टता के बूते प्राप्त की है, अन्यों से प्राप्त की है. दलित साहित्य के बारे में जबकि यह निर्विवाद सत्य है कि इसका जन्म महाराष्ट्र के जमीनी दलित पैंथर आंदोलन के गर्भ से हुआ, यह भी यह मान्य है कि दलित चेतनापरक उन रचनाओं को ही रचनात्मक दलित साहित्य में शुमार किया जाएगा जो दलितों द्वारा दलितों के अधिकारों, उनके प्रति अन्यायों-अत्याचारों आदि को रेखांकित करने के लिए लिखा जा रहा है. जाहिर है, ये रचनाएँ स्वानुभूत होंगी. आम्बेडकरी चेतना से रहित, भाग्य-भगवान के फेरे का पोषण करने वाले मनुवाद एवं धार्मिक वाह्याचार को सहलाने वाले रचनाकार एवं रचनाएँ दलितों की ओर से होकर भी दलित साहित्य नहीं कहे जा सकेंगे. जैसे कि स्त्री की ओर से आई हर रचना, स्त्री अधिकारों एवं सरोकारों से शून्य रचना अथवा स्त्री चेतना विरोधी रचना स्त्री चेतना वाहक साहित्य में शामिल नहीं हो सकतीं और न ही ऐसी स्त्रियां ही. यह भी गौरतलब है कि स्त्री साहित्यकार जिस तरह से स्त्री ही होंगी, कोई पुरुष नहीं, वैसे ही, दलित साहित्यकार एवं दलित रचना की प्रकृति एवं स्वरूप पृथक है, विशिष्ट है. और, सर्वजन प्रसूत अथवा प्रभाव के स्त्री साहित्य में दलित स्त्री के पक्ष का यथेष्ट, समांग अथवा निष्पक्ष अंकन नहीं हो सकता.
जहाँ तक ओबीसी साहित्य और बहुजन साहित्य की धारणा के चलने की बात है तो ओबीसी साहित्य के कॉन्सेप्ट को इसके प्रोमोटर फॉरवर्ड प्रेस एवं उसके सलाहकार/प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने पत्रिका के पन्नों पर ही रिजेक्ट कर दिया है, क्योंकि इस धारणा को फॉरवर्ड प्रेस के सर्वप्रमुख लेखक प्रातिभ साहित्यकार एवं विचारक प्रेम कुमार मणि तथा ख्यात हिंदी साहित्यकार व हंस संपादक रहे राजेन्द्र यादव समेत कई ओबीसी विद्वानों ने जबरदस्त विरोध किया था. लेकिन इस ओबीसी साहित्य के सूत्रधार राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने इसके ख़ारिज होने पर न तो कोई शिकायत कहीं दर्ज़ की न ही वकालत के पक्ष में कोई परिणामी तर्क. राजेन्द्र प्रसाद सिंह आत्ममुग्ध किस्म के कन्फ्यूज्ड सोच के स्वामी हैं. वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य एवं ओबीसी रचनाकारों की मौजूदगी को तलाशने के लिए बड़ी मेहनत से ’शोध’ एवं पड़ताल करते हैं और हर स्वाद–संघी, बजरंगी, रामनामी, वामी, मनुवादी, प्रगतिवादी को अपना बना जाते हैं जैसे कि उन्हें कोई चुनाव जीतना हो! इस क्रम में वे ब्राह्मणवादी, सामंती मिथकीय चरित्रों एवं विचारों को भी ओबीसी हिताय बना-बता डालते हैं. सिद्धांतकार बनने की हड़बड़ी में यह भयानक गड़बड़ी श्री सिंह कर जाते हैं. फॉरवर्ड प्रेस के एक आलेख में वे अपने गाँव एवं आसपास के इलाके कुछ मिथकीय एवं दैवी जातीय चरित्रों का जिक्र करते नहीं अघाते. और, यहाँ कोइरी/कुशवाहा से आते देवी देवताओं की खास चर्चा करते हैं और इस तरह यहाँ पाठकों के समक्ष नहीं खोलते लेकिन अपनी जाति का बड़ी चालाकी से संकेत कर जाते हैं! श्री सिंह दलित साहित्य की हेठी करते हुए इसे शेड्यूल्ड कास्ट लिटरेचर बताते हैं। किसी ने इन सिंहजी से क्यों नहीं पूछा कि दलित साहित्य जब शेड्यूल्ड कास्ट लिटरेचर है तो उनकी अपनी बड़े जतन से सोच समझकर ‘मुहूर्त देख’ पैदा की गयी औलाद “ओबीसी साहित्य” कौन सा लिटरेचर होगा?
ध्यान रहे कि दलित साहित्य को अनुसूचित जाति साहित्य अथवा शेड्यूल्ड कास्ट लिटरेचर कहने वाला सबसे पहला ओबीसी विद्वान श्री सिंह ही हैं जिस फतवा-सह-गाली को फॉरवर्ड प्रेस एवं उसके प्रमोद रंजन ने समर्थित किया. द्विजों ने तो दलित साहित्य को शेड्यूल्ड कास्ट लिटरेचर कह केवल गलियाया ही है, यहाँ तो उसे गलियाने के साथ साथ ही धकियाने अथवा उसपर कब्जा जमाने की मंशा है पिछड़ों की. यही वजह है कि गाली देने योग्य चीज़ से दूसरी ओर प्रेम भी हो सकता है जब वह हमारे काम की हो जाए? क्या पूछ सकता हूँ कि दलित साहित्य को बहुजन साहित्य में विस्तृत कर देने से उसका जाति-चरित्र खत्म हो जाएगा? जिस दलित शब्द को अनुसूचित जाति के तुल्य रखा गया है उसमें भी अनेकानेक जातियां हैं, यानी यह जमात है, बहुजन धारणा में जातियों से बनी जमात बड़ी होती है, बाकी क्या बदलता है? ध्यान देने की जरूरत है कि दलित साहित्य के अंतर्गत स्वानुभूति के आधार को प्रमुखता दी जाती है जिसे बहुजन साहित्य के पैरवीकार भी ख़ारिज नहीं कर रहे, बस, उन्हें इस साहित्य में हिस्सेदारी चाहिए, इसलिए वे दलित साहित्य के आलोचक हैं. वर्ना, दलित साहित्य की कोई पत्रिका अथवा वैचारिक पुस्तक देख लीजिए, वहाँ दलितों के अलावा ओबीसी एवं द्विज रचनकारों की चीजें मिल जाएंगी. कुछ दलित पत्रिकाएँ तो ‘मित्र रचना’ जैसे कॉलम/स्तंभ में गैर दलितों की कहानी, कविता आदि प्रकाशित करती हैं.
यहाँ अवांतर सा लगता एक रोचक प्रसंग बताता हूँ जो दरअसल इस विषय से कहीं से भी असंबद्ध नहीं है. साहित्यिक हिंदी मासिक ‘कथादेश’ ने एक बार दलितेतर लेखकों से अपनी आत्मबयानी लिखने की अपील की एवं उसे पत्रिका में एक स्तंभ विशेष में जगह देने का ऐलान किया. लेखकों को अपने घर-परिवार, रिश्ते-नाते का एवं अपना वह अनुभव साझा करना था जो दलितों-वंचितों के विरुद्ध जाता था. मजा यह कि इस स्तंभ के तहत केवल एक अनुभव ही प्रकाशित हो सका, वह था प्रसिद्ध लेखक–पत्रकार कृपाशंकर चौबे का. उस स्वानुभव लेख में भी श्री चौबे द्वारा अपनी अथवा अपनों की कोई उल्लेखनीय खबर नहीं ली जा सकी. अभिप्राय यह कि बहुजन साहित्य यदि आकार ले भी ले तो वहाँ दलितों के अलावा अर्थात ओबीसी बहुजनों के स्वानुभव क्या दलितों के विरुद्ध नहीं होंगे? ओबीसी बिरादरी के लोग दलितों जैसे अछूतपन एवं दलन के दर्दनाक अनुभव कहाँ से लायेंगे? जाति व्यवस्था में उनके ऊपर सवर्ण हैं तो नीचे दलित हैं. दलितों का तो इस ख्याल से दोहरा शोषण है, ओबीसी का भी, और द्विजों का भी. और, सछूत ओबीसी को सछूत सवर्णों से मिले विभेद का स्तर वही नहीं होगा जो दलितों का ‘प्राप्य’ है!
प्रमोद रंजन ने कई बार दलितों एवं ओबीसी के एक दूसरे कैटेगरी में आवाजाही अथवा किसी राज्य में किसी जाति के दलित तो किसी अन्य राज्य में ओबीसी होने की बात रख भी ‘बहुजन साहित्य’ पद की रक्षा की वकालत की है. पर यह कोई बात नहीं हुई. यह तो अपवाद है, हम मुख्य धारणा पर रहेंगे न कि अपवादों पर? कुछ राज्यों में तो द्विज जातियां ब्राह्मण, राजपूत भी ओबीसी हैं, बिहार में तो कुछ ओबीसी जातियों को सीधे अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) में प्रवेश मिल रहा है. अतः अपवादों से किसी व्यापक धारणा की सच्चाई को भंग नहीं किया जा सकता. फॉरवर्ड प्रेस द्वारा तो ओबीसी साहित्य विषयक विशेषांक निकालकर अपने पूर्वग्रह को सायास ‘तूल देकर’ कायस्थ समाज से आने लेखक प्रेमचंद, विवेकानंद को भी ओबीसी साहित्यकार में गिन लिया गया था.
वैसे, स्थूल रूप से बहुजन साहित्य की धारणा को धारण करने में तो कोई बुराई नहीं है पर यह संकल्पना व्यावहारिक नहीं है. दलित साहित्य की कथित रूप से संकीर्ण धारणा को व्यापक करने के लिए बहुजन साहित्य संज्ञा की वकालत ओबीसी के लोग कर रहे हैं. लेकिन यह कैसे चलेगा? इस संकल्पना के फेंटे में रचनाओं का वह तेज सुरक्षित नहीं रह सकता, नहीं समा सकता जिससे दलित साहित्य की सर्वथा अलग व विशिष्ट पहचान है. आप देखेंगे कि दलित साहित्य के अंतर्गत जो स्वानुभूत दर्ज़ है वही उसके प्राण हैं, यही कारण है कि दलित साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी एवं अवयव आत्मकथा है एवं अन्य विधाओं की रचनाओं में भी यहाँ स्वानुभूति का ही महत्व है. यही कारण है कि कथित मुख्यधारा के साहित्य को परखने के सौंदर्यशास्त्र एवं आलोचना-औजार भी यहाँ बहुधा बेमानी हो जाते हैं.
बहुजन साहित्य की वकालत करने वाले लोग तो इतिहास एवं मिथक में जातीय नायकों अथवा जातीय नायक में फिट किये गए चरित्रों के प्रति भी अनन्य-अनालोच्य मोह रख रहे हैं जो कि प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक सोच वाले समाज के विकास में बड़ी बाधा है और दलित साहित्य में त्याज्य है. दलित साहित्य में अगर मिथकीय दलित वंचित चरित्रों की प्रशंसा और स्वीकार है भी तो उन्हें आवश्यक रूप से मानव होना है, मानवेतर एवं अलौकिक नहीं. वाल्मीकि और व्यास को भारत के पहले दलित कवि के रूप में चित्रित करने वाले दलित एवं गैरदलित जन भी इसी व्यर्थ-वृथा मोह में बीमार हैं. यदि ये लोग दलित हुए भी हों तो मनुवादी साहित्य के पोषक एवं स्वजन विरोधी होने के कारण ये दलित कवि नहीं कहला सकते. वर्तमान में जैसे हम संघी छत्रच्छाया के कद्दावर राजनेता ओबीसी नरेंद्र मोदी को क्षणांश में बहुजन नेता नहीं मान सकते क्योंकि वे बहुजन विरोध एवं द्विजवादी अर्थात ब्राह्मणवादी संस्कृति व हित के पोषण में खड़े हैं. जाति जैसी बीमारी को जहाँ भगाने की सुनियोजित तैयारी होनी चाहिए वहाँ हम अपनी जाति की समृद्ध विरासत मिथकीय एवं ऐतिहासिक पात्रों में नहीं देख सकते. सम्राट अशोक यदि किसी गुण के लिए हमें ग्राह्य हो सकता है तो उसके परवर्ती बौद्ध धम्मीय संलग्नता एवं विवेक के कारण, न कि किसी ओबीसी रूट एवं राजन्य परिवार से आने के कारण. कीचड़ से कीचड़ नहीं धोया जा सकता.
फॉरवर्ड प्रेस के कुछ अंकों के पन्नों पर एक कथित मिथकीय बहुजन नायक महिषासुर की तस्वीर दिखाई देती रही है जिसकी दाहिनी हथेली आशीर्वादी-मुद्रा में ऊपर की ओर उठी हुई है. आशीर्वाद वही दे सकता है जिसमें मनुष्येतर अलौकिक शक्ति निहित हो. वैज्ञानिक चेतना से रहित बहुजनों ने बुद्ध, कबीर, रैदास जैसे महामानवों को भी इस मुद्रा में परोस रखा है जो ब्रह्मणी आशीर्वादी संस्कृति का ही एक भयावह रोग है. ऐसे भक्त बहुजनों एवं पारंपरिक भक्त अभिजनों में कोई अंतर नहीं है. पत्रिका के पन्नों पर ही कई लेखकों ने महिषासुर को यादव करार दिया है. कोई रावण को ब्राह्मण मानता है तो कोई आदिवासी, क्योंकि राम का खानदान भी राजपूत मान लिया गया है. कृष्ण को भी यादव मानते हुए फॉरवर्ड प्रेस में कई बार कृष्ण-आरती उतारी गयी है. यह सब क्या है? क्या कथित त्रेता, द्वापर युग के मानव जन्म के इतिहास के काल से इतर आये काल्पनिक चरित्रों एवं उनकी जाति स्थिति को स्वीकारा जा सकता है? स्पष्ट इशारा मेरा यह है कि वैज्ञानिक चेतना में न फिट होने वाली धारणाएं सभ्य एवं विवेकी समाज के लिए वरेण्य नहीं हो सकतीं, चाहें वह वंचित एवं पिछड़े समाज से जुड़कर अथवा उनका पक्षपोषण कर ही क्यों न आती हों. और, इस बात का दलित साहित्य, जो कि अम्बेडकरी चेतना का साहित्य है, में खास ध्यान रखा जाता है. यहाँ यह उल्लेख करना भी अप्रासंगिक न होगा कि आदिवासी साहित्य में भी कहीं कहीं पुरातन संस्कृति के प्रति प्रगतिहीन मोह है, दकियानूसी लगाव है। फॉरवर्ड प्रेस की एक साहित्य वार्षिकी में मैंने प्रसिद्ध आदिवासी कवि निर्मला पुतुल एवं अनुज लुगुन की ऐसे ही प्रतिगामी मोहों से सजी मगर सुन्दर दिखती कुछ रचनाओं का सोदाहरण पोस्टमार्टम किया था. रेखांकित करने योग्य है कि ये आदिवासी कवि पारंपरिक सर्वजन शिल्प में कविताएं करते हैं जो कहीं से भी प्रभु वर्णवादी मानसिकता पर प्रहार नहीं करतीं. जिस कवयित्री की रचना में शहर से अलग थलग वान-प्रांतर में बने फूस के आंगन वाले उस घर में किसी आदिवासी कन्या के ब्याहे जाने की पैरवी हो जहाँ मुर्गा के बंधे होने एवं उसके बांग देने से लोग अपना जगना निर्धारित कर सके, उसे क्या कहें. जो कवि आदिवासियों के नंग-धड़ंग रहने, नंगे पाँव वनों में चलने की मज़बूरी को सांस्कृतिक मजबूती बताए उसे क्या कहियेगा?
अफ़सोस यह कि बहुजन साहित्य के कर्णधारों की सोच सांस्कृतिक मोह पालने के मामले में इन अवसरवादी अथवा भटकी-भ्रमित चेतना के आदिवासी कवियों से कहीं अलग नहीं है.
फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका का अंतिम बहुजन साहित्य वार्षिकी मई 2016 में आया और अंतिम प्रिंट अंक जून 2016, दोनों अंकों में मुझे लिखने का आमंत्रण भी पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन से मिला पर दोनों अंक के लिए भेजे गए मेरे आलेख केवल इसलिए नहीं छापे गए कि उनमें ओबीसी साहित्य की धारणा की आलोचना एवं मुहिम की थी.
कोई बताएगा कि अबतक किसी प्रतिनिधि ओबीसी कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा की कोई ठोस पहचान अबतक क्यों नहीं की गयी है? ओबीसी साहित्य (अबतक ख्याली मात्र) के जनक राजेन्द्र प्रसाद सिंह बताते हैं कि दलित साहित्य का जन्म कबीर से हुआ है। यह दूर की कौड़ी ढूंढ़ते हुए मराठी दलित पैंथर आन्दोलन से दलित साहित्य के उपजने को वे जैसे देखना भी नहीं चाहते! स्मरण रहे आन्दोलन में दलितों के अलावा वाम एवं ओबीसी बुद्धिजीवी एवं कार्यकर्ता भी शामिल रहे थे। क्या कारण है कि तीन-चार कोइरियों ने मिलकर ही ओबीसी साहित्य एवं बहुजन साहित्य की धारणा को जन्म देने की ठेकेदारी ली है और अन्य किसी ओबीसी एवं दलित को यह धारणा उगाते वक्त नहीं पूछा गया?
मजेदार है, पहले इनने ‘ओबीसी साहित्य’ पैदा करने की कोशिश की, कोशिश बीच ही इसे लगभग अजन्मा छोड़ ‘बहुजन साहित्य’ की धारणा पैदा करने में जुट गये, क्योंकि प्रबल विरोध उनके बीच से ही किसी दमदार व्यक्ति का आया।
बहरहाल, ‘ईश्वर करे’, वे मंजिल तक जल्द पहुँचे और उनका अंतिम अथवा वास्तविक अभीष्ट ‘कोइरी साहित्य’ भी जल्द ही जन्म ले, चले-बढ़े और दौड़े भी! ओबीसी साहित्य एवं बहुजन साहित्य की तरह इन ‘पिताओं की कोख’ में ही दम न त्याग दे!
आलेख : मुसाफ़िर बैठा
संपर्क : प्रशाखा पदाधिकारी, प्रकाशन विभाग, बिहार विधान परिषद्, पटना (बिहार) -800015, इमेल-born.bihari@gmail.com, मोबाइल : 7903360047