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5 May 2023 · 11 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक रिपोर्ट
दिनांक 5 मई 2023 शुक्रवार प्रातः 10:00 बजे से 11:40 तक सुंदरकांड का पाठ हुआ।

पाठ में नगर पालिका परिषद की भूतपूर्व सदस्य श्रीमती नीलम गुप्ता, श्री विवेक गुप्ता, सत्संग प्रेमी श्रीमती शशि गुप्ता एवं श्रीमती मंजुल रानी की मुख्य सहभागिता रही।

कथा-क्रम

सुंदरकांड हनुमान जी के बल और बुद्धि-चातुर्य की यश-गाथा को समर्पित रामचरितमानस का प्रमुख अध्याय है । सुंदरकांड में हनुमान जी सीता जी की खोज के लिए समुद्र के तट से लंका तक जाते हैं और अत्यंत बुद्धि-चातुर्य का परिचय देते हुए अपने अतुलित बल के आधार पर कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न करते हैं। यह तभी संभव हुआ, जब उन्होंने कार्य को सर्वोपरि रखा तथा उसके पूरा होने से पहले एक पल के लिए भी विश्राम करना स्वीकार नहीं किया। समुद्र ने मैनाक पर्वत से कहा था कि हनुमान जी को अपने ऊपर विश्राम करने दो, लेकिन हनुमान जी ने यही उत्तर दिया:-
राम काजु कीन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम। (सुंदरकांड दोहा संख्या 1)
रास्ते में सर्वप्रथम सुरसा ने हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा देवताओं के कहने पर ली। सुरसा नाम अहिन्ह कै माता
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अनुसार इसका अर्थ सुरसा नामक सर्पों की माता हुआ । सुरसा ने हनुमान जी को खा जाने के लिए अपना शरीर जब फैलाना शुरू किया तो हनुमान जी ने उससे दुगना अपना शरीर फैला लिया। लेकिन जब सुरसा ने सौ योजन का अपना शरीर फैलाया जो कि समुद्र का कुल विस्तार था, तब हनुमान जी अपने शरीर को अत्यंत छोटा करते हुए सुरसा के मुख में प्रवेश करके बाहर निकल आए । इससे सुरसा ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया। कथा बताती है कि जब-जैसी आवश्यकता हो, व्यक्ति को कभी अपना बल दिखाना पड़ता है और कभी बुद्धि-चातुर्य का आश्रय लेकर छोटा रूप धारण करते हुए कार्य में सफलता पानी होती है ।
रास्ते में एक राक्षसी का पहरा था । तुलसीदास जी लिखते हैं :-
निशिचरि एक सिंधु महुं रहई। करि माया नभ के खग गहई।। (सुंदरकांड दोहा संख्या दो)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इसकी टीका इस प्रकार लिखते हैं:-” समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके नभ में उड़ते हुए खग अर्थात पक्षियों को पकड़ लेती थी। यह संभवतः एक बड़ी मायावी शक्ति थी, जो समुद्र के ऊपर से आने वाली लंका-विरोधी शक्तियों को रोकने के लिए तैनात की गई होगी। हनुमान जी ने इसकी पकड़ में आने के स्थान पर इसको ही नष्ट कर दिया। यह शक्ति और बुद्धि दोनों के समन्वय से ही संभव हो सकता है। हनुमान जी का चातुर्य यह भी रहा कि उन्होंने बहुत छोटा रूप धर के रात के समय लंका में प्रवेश किया अर्थात अनावश्यक रूप से शक्ति का प्रयोग करना उन्होंने उचित नहीं समझा:-
अति लघु रूप धरौं निशि, नगर करौं पइसार (दोहा संख्या 3)
इतना सब करते हुए भी लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की राक्षसी मिल गई, जिसको अपनी शक्ति से हनुमान जी ने जब जीत लिया, तब लंका में प्रवेश किया। विभीषण के महल में आए और विभीषण की वास्तविकता को जानने के लिए उन्होंने एक बार पुनः ब्राह्मण का रूप धारण किया। स्मरण रहे कि किष्किंधाकांड में जब हनुमान जी पहली बार राम का परिचय लेने के लिए उनसे मिले थे, तब भी ब्राह्मण का ही रूप धरकर मिले थे:-
विप्र रुप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषण उठि तहॅं आए।। (सुंदरकांड दोहा संख्या 5)
कुछ ही देर में हनुमान जी और विभीषण जी दोनों में सामंजस्य बैठ गया। विभीषण ने अपनी भीतर की व्यथा हनुमान जी को बता दी :-
सुनहुॅं पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हिं जीभ बिचारी।। (सुंदरकांड दोहा चौपाई संख्या 6)
अर्थात हनुमान जी ! हम तो लंका में ऐसे रह रहे हैं, जैसे दांतो के बीच में अर्थात राक्षसी वृत्तियों के बीच में जीभ अथवा सज्जन व्यक्ति रहते हैं। हनुमान जी से मिलकर विभीषण को ईश्वर प्राप्ति का विश्वास दृढ़ हो गया। कहने लगे:-
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।। (चौपाई संख्या 6)
अर्थात भगवान की कृपा से ही संत मिलते हैं और जब संत मिल जाते हैं, तब ईश्वर के मिलने का भरोसा बहुत गहरा हो जाता है। हनुमान जी की यह बड़ी भूमिका रही कि उन्होंने विभीषण को अपने पक्ष में कर लिया। दूत की भूमिका प्रायः लगी-बंधी होती है । लेकिन हनुमान जी ने केवल सीता जी की खोज ही नहीं की, उन्होंने लंका में विभीषण जैसे राम-भक्तों को उनके हृदय के भीतर प्रवेश करके अपने पक्ष में खुलकर सामने आने के लिए अनुकूल परिस्थितियां भी निर्मित कीं। इसका लाभ राम-रावण युद्ध में असाधारण कोटि का रहा।
कथा-क्रम में हनुमान जी को यह पता चला कि सीता जी अशोक वाटिका में रहती हैं। विभीषण ने उन तक पहुंचने के सारे साधन हनुमान जी को बताए और जब हनुमान जी अशोक वाटिका में पहुंचे, तब वह क्या देखते हैं, कितना सुंदर चित्र शब्दों के द्वारा तुलसीदास जी ने खींच दिया है:-
कृश तनु शीश जटा एक वेणी। जपति हृदय रघुपति गुन श्रेणी।। (सुंदरकांड चौपाई संख्या 7)
अर्थात कृश शरीर है, सिर पर जटाओं की एक वेणी है, हृदय में रघुपति का जाप कर रही हैं।
हनुमान जी ने रावण को भी देखा और रावण की मानसिकता को को भी महसूस किया, जो सीता जी से कह रहा था :-
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।। तब अनुचरी करउ पन मोरा। एक बार विलोकु मम ओरा (सुंदरकांड चौपाई संख्या 8)
सीता जी दुखी हैं और जहां एक ओर क्रोधित होकर रावण से कहती हैं:-
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही (चौपाई संख्या 8)
वहीं दूसरी ओर दुखी होकर कह बैठती हैं:-
चंद्रहास हरु मम परितापं (चौपाई संख्या 9)
अर्थात निर्लज्ज! तू मुझे कायरता पूर्वक लंका में ले आया है । अब तेरी चंद्रहास तलवार मेरे ताप को क्यों नहीं हर लेती ?

रावण के राज्य में त्रिजटा नाम की राक्षसी भी थी, जो वैसे तो सीता जी पर पहरा देने के लिए तैनात थी; लेकिन उसके भीतर साधिका थी और उसने सीता जी को सांत्वना प्रदान करने तथा अन्य राक्षसों के मनोबल को क्षीण करने के लिए एक स्वप्न का वर्णन किया । यह सब दृश्य हनुमान जी ने जब देखा, तो समय देखकर उन्होंने रामचंद्र जी द्वारा दी गई हाथ की मुद्रिका अर्थात अंगूठी सीता जी के सामने वृक्ष के ऊपर से गिरा दी । तदुपरांत हनुमान जी सीता जी के सामने प्रकट हुए और उन्होंने कहा:-
रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य शपथ करुणानिधान की।।(चौपाई संख्या 12)
अर्थात हे माता जानकी! मैं राम जी का दूत हूं। करुणानिधान की सच्ची शपथ खाकर कह रहा हूं। हनुमान जी ने दुखी सीता जी को सांत्वना देते हुए भगवान राम के उनके प्रति प्रेम की बात भी कही:-
तुम्ह ते प्रेम राम के दूना (चौपाई संख्या 13)
अर्थात जितना प्रेम आप रामजी से करती हैं, रामजी के हृदय में उससे दुगना प्रेम है।
हनुमान जी ने एक दूत के रूप में सीता जी को अपनी शक्ति का परिचय यह कहते हुए दिया कि मैं चाहूं तो आपको अभी यहां से ले जा सकता हूं। लेकिन मुझे प्रभु श्री राम की आज्ञा नहीं है। इस पर सीता जी ने संदेह व्यक्त किया कि तुम कपि लोग बड़े-बड़े राक्षसों से भला कैसे विजय प्राप्त कर सकते हो ? संदेह सही था, इसलिए हनुमान जी ने सीता जी का भरोसा प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने विशाल रूप का परिचय दिया:-
मोरे हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हिं निज देहा (चौपाई संख्या 15)
अर्थात सीता जी ने कहा कि मेरे हृदय में संदेह हो रहा है, तो हनुमान जी ने अपनी विशाल देह को प्रकट किया। तब सीता जी को हनुमान जी पर भरोसा हुआ।
हनुमान जी की शक्ति भले ही कितनी अपार हो, लेकिन वह सीता जी के सामने एक बालक के समान ही व्यवहार कर रहे थे । जिस तरह एक बालक भूख लगने पर अपनी मॉं से कहता है कि मां मुझे भूख लग रही है, कुछ खा लूं? उसी प्रकार से सीता जी से हनुमान जी ने कहा:-

सुनहुं मातु मोहि अतिशय भूखा (चौपाई संख्या 16)
मॉं! मैं बहुत भूखा हूं। कुछ फल खाना चाहता हूं। और फिर सीता जी की आज्ञा पाकर हनुमान जी ने फल खाना शुरू किया । इसकी तार्किक परिणति यह हुई कि उनको रोका गया। युद्ध हुआ। रावण का पुत्र अक्षय कुमार मारा गया। मेघनाद उन्हें ब्रह्मास्त्र से मूर्छित कर नागपाश से बांधकर रावण की सभा में ले गया। इस सभा में दूत के रूप में अपनी उपस्थिति का उपयोग हनुमान जी ने अत्यंत बुद्धि-चातुर्य के साथ किया। उन्होंने एक भोले-भाले व्यक्ति के रूप में रावण को अपनी बात बताई कि मुझे भूख लगी थी, मैंने फल खा लिए। जब तुम्हारे राक्षसों ने मुझे मारा, तब मैंने भी उनको मारा। मैं तो केवल प्रभु का कार्य कर रहा था ।
अत्यंत विनम्रता-पूर्वक उन्होंने रावण से कहा कि मेरा कहना मान कर सीता को वापस लौटा दो । विनती कर रहा हूं।:-
विनती करउॅं जोरि कर रावन। मोरे कहें जानकी दीजै (चौपाई संख्या 21)
केवल विनम्रता ही नहीं, एक दूत की भूमिका से आगे बढ़ते हुए उन्होंने रावण को चेतावनी भी दे डाली :-
सुनु दसकंठ कहउॅं पन रोपी। विमुख राम त्राता नहिं कोपी (चौपाई संख्या 22)
प्रण करके कहता हूं कि राम-विरोधी को बचाने वाला कोई नहीं है ।

विपत्ति को अवसर के रूप में प्रयोग करना तो कोई हनुमानजी से सीखे। रावण ने यह सोचकर हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई थी कि पूंछ जल जाने से एक ओर इस वानर का उपहास होगा, दूसरी ओर रामचंद्र जी की सामर्थ्य भी छोटी हो जाएगी। लेकिन हनुमान जी ने पूॅंछ में आग लगने को भी एक सकारात्मक प्रवृत्ति के रूप में ग्रहण किया। उन्होंने अपनी पूंछ में लगी हुई आग को पूरी लंका में घर-घर में फैलाना शुरू कर दिया। लंका धू-धू कर जलने लगी। हनुमान जी का बल और भगवान राम की सामर्थ्य तथा उनकी वानर सेना का बल संपूर्ण लंका के ऊपर छा गया। शत्रु के मनोबल को क्षीण करना युद्ध-कौशल का सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है। हनुमान जी ने सफलतापूर्वक यह कार्य कर डाला ।

बस फिर क्या था, पुनः सीता जी के पास गए। बुद्धि-चातुर्य का परिचय देते हुए उन्होंने सीता जी से भेंट के प्रमाण स्वरूप चूड़ामणि प्राप्त की और पुनः समुद्र को लांघ कर रामचंद्र जी और वानर सेना के पास आ गए।

लंका से लौटने से पहले सीता जी ने एक महत्वपूर्ण पंक्ति हनुमान जी के सामने कही थी:-
दीनदयाल बिरुदि संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।। (सुंदरकांड चौपाई संख्या 26)
अर्थात बिरिदु अथवा विरद अर्थात सुविख्यात तो भगवान राम की दीनों पर दया करने वाली अर्थात दीनदयाल नाम की ख्याति है । उसी के अनुरूप अर्थात उसी विरद अथवा लोक में व्याप्त ख्याति को याद करते हुए मेरा निवेदन है कि हे नाथ! मेरे ऊपर जो बड़ा भारी संकट है, उसे आप हरने का कष्ट करें अर्थात दूर करें। यह चौपाई केवल सीता जी के लिए ही नहीं, हर उस भक्त के लिए उपयोगी है; जो भगवान राम के दीनदयाल रूप से प्रसिद्ध गुण से अवगत है और उनके प्रति अटूट भरोसा रखते हुए अपने कष्ट को दूर करने के लिए उनसे प्रार्थना कर रहा है । जिस प्रकार रामचंद्र जी ने सीता जी के भारी दुख को दूर किया, ठीक उसी प्रकार भगवान राम अपने प्रत्येक भक्त की पीड़ा को दूर करने में समर्थ हैं।
सीता जी की खोज करने के उपरांत जब हनुमान जी ने सारा वृतांत रामचंद्र जी को सुनाया , तो रामचंद्र जी ने कहा:-
सुनु सुत तोहि उऋण मैं नाहीं (सुंदरकांड दोहा चौपाई संख्या 31)
हे पुत्र ! मैं तुम्हारे ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता।
कोई दूसरा व्यक्ति होता तो इतना सुनकर अभिमान से भर जाता लेकिन हनुमान जी तो भगवान राम के अनन्य सेवकत्व का भाव लेकर ही जीने वाले व्यक्ति थे । उन्होंने इतना सब सुनने के बाद भी केवल यही कहा:-
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई (सुंदरकांड चौपाई संख्या 32)
दूसरी तरफ विभीषण ने अपनी तरफ से रावण को जितना सद्-उपदेश दिया जा सकता था, वह दिया। उसने यही कहा :-
जहां सुमति तहॅं संपत्ति नाना। जहां कुमति तहॅं बिपति निदाना।। (सुंदरकांड चौपाई संख्या 39) अर्थात जहां अच्छी बुद्धि है वहां सुखमय स्थिति होती है, जहां बुद्धि बुरी हो जाती है वहां निदान अर्थात परिणाम के रूप में विपत्ति ही आती है।
लेकिन विभीषण के समझाने पर भी रावण को सद्बुद्धि नहीं आई। उसने उसे लात मारकर निकाल दिया।
धर्म और व्यवहार का बड़ा मार्मिक स्वाभाविक वर्णन उस समय का मिलता है, जब विभीषण रामचंद्र जी से मिलने के लिए समुद्र को पार करके उनके पास आया। सुग्रीव का कहना था:-
जानि न जाइ निशाचर माया (चौपाई संख्या 42)
अर्थात इन राक्षसों की माया जानी नहीं जा सकती। पता नहीं क्या भेद लेने आए हों? लेकिन राम ने एक ही बात कही:-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। (सुंदरकांड चौपाई संख्या 43)
अर्थात निर्मल हृदय के साथ जो मेरे पास आता है, वह मुझे पा जाता है। मुझे छल-कपट अच्छे नहीं लगते। नीति की बात भले ही कुछ भी हो, लेकिन हनुमान जी के शब्दों में भगवान तो शरणागत से प्रेम करने वाले होते हैं :-
शरणागत वत्सल भगवाना (चौपाई संख्या 42)
परिणाम यह निकला कि राम ने विभीषण का लंका के शासक के रूप में युद्ध से पहले ही राज्य-अभिषेक कर दिया। विभीषण ने राजतिलक नहीं मांगा था लेकिन भगवान राम ने वह दिया। जो सहायता विभीषण के द्वारा उस समय भगवान राम की की जा रही थी, उसको देखते हुए कुछ भी देना कम ही था। तुलसीदास ने भगवान राम की इस सकुचाहट को भॉंपते हुए एक दोहा लिखा :-
जो संपति शिव रावणहिं दीन्ह दिए दस माथ। सोइ संपदा विभीषणहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।। (सुंदरकांड दोहा संख्या 49)
अर्थात रावण को जो संपत्ति भगवान शंकर ने दस सिर चढ़ाने पर दी थी, वही संपत्ति विभीषण को भगवान राम बहुत सकुचाते हुए दे रहे हैं।
अब बड़ा प्रश्न सागर को पार करने का था। लक्ष्मण जी चाहते थे कि एक बाण से समुद्र को सुखा दिया जाए लेकिन भगवान राम ने सर्वप्रथम समुद्र से प्रार्थना करने का निश्चय किया। तदुपरांत जब तीन दिन तक प्रार्थना करने के बाद भी मूर्ख समुद्र ने रास्ता नहीं दिया, तब रामचंद्र जी क्रोधित हो गए और कहने लगे कि बिना भय के इस संसार में प्रेम नहीं होता:-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।। (सुंदरकांड दोहा संख्या 57)

जब रामचंद्र जी ने धनुष हाथ में उठा लिया, तब जाकर समुद्र को बुद्धि आई और तब उसने अपनी जड़ता को महसूस किया। समुद्र ने इस अवसर पर और भी बहुत कुछ कहा। वह सब कुछ एक खलनायक के विचार हैं। सुंदरकांड के अंतिम चरण में समुद्र खलनायक की भूमिका में था। किसी भी पुस्तक में खलनायक के विचार आदर पूर्वक उद्धृत करने योग्य नहीं होते। उद्ध्रृत तो केवल उन्हीं विचारों को करना चाहिए जो या तो गोस्वामी तुलसीदास जी के हों, भगवान राम के हों अथवा हनुमान जी द्वारा कहे गए हों। खलनायक के विचारों को दोहराना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।

सुंदरकांड इसलिए सुंदर है क्योंकि यह हमें भगवान राम के प्रति हनुमान जी की अभिमान-रहित अनन्य भक्ति का परिचय कराता है। अत्यंत बलशाली होते हुए भी वह अपनी मर्यादाओं में रहते हुए कार्य करने में निपुण हैं। लक्ष्य की प्राप्ति किए बिना वह विश्राम नहीं चाहते। सब परिस्थितियों को प्रभु द्वारा प्रदत्त मानते हुए उनका सदुपयोग करने में उनके समान बुद्धिमान कोई नहीं है।
हनुमान जी से प्रार्थना है कि वह हमें निरभिमानता सहित बुद्धि और बल से युक्त करने की कृपा करें।
————————————–
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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