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12 May 2024 · 1 min read

वो दूरियां सात समंदर की, तो तुम पार कर आये।

वो दूरियां सात समंदर की, तो तुम पार कर आये,
पर अब ये फ़ासले जन्मों के, तू भी कैसे मिटाये?
ये स्याह बादल भी ठहर कर, कुछ ऐसे हैं छाये,
कि अब सूरज ने भी, अपनी खिड़कियों पर हैं परदे चढ़ाये।
जाने कैसी ये बारिशें हैं बरस रहीं, कि धरा इनसे भींग ना पाये,
आँखों में एक दर्द समेटे, अपनी हीं तपिश में वो जलती जाए।
वो तन्हा कश्ती लहरों पर, बिन माँझी कब से डगमगाए,
ना सागर हीं उसे डुबो रहा, ना किनारे हीं उसे अपना बनाये।
एक नज़्म वादियों में गुंजी, जिसने पहाड़ों के दिल पिघलाए,
बर्फ़ीली घाटियाँ सिसकी यूँ कि, नदियाँ बन वो बहती जाएँ।
अनवरत कदम यूँ बढ़ते जाए, कि रस्ते हीं थक कर सुस्ताये,
एक घर का भ्रम देखा था जहां, वो मोड़ कहीं अब मिल ना पाए।
वो टूटता तारा ख़ामोशी से गिरा, जिसने अनगिनत दुआओं के भार उठाये,
पूरी करता मन्नतें औरों की, अस्तित्व उसका क्षितिज बन जाए।
यादो की अब महफिलें जमती हैं, एक शाम भी तन्हा गुजरने ना पाए,
अश्कों से हैं जाम भरे और आँखों में अब बस तस्वीरें मुस्काये।

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