Sishe ke makan ko , ghar banane ham chale ,
सारी तल्ख़ियां गर हम ही से हों तो, बात ही क्या है,
23/187.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
*बहुत अच्छाइयाँ हैं, मन्दिरों में-तीर्थ जाने में (हिंदी गजल
मुझे मुझसे हीं अब मांगती है, गुजरे लम्हों की रुसवाईयाँ।
प्रकृति का अनुपम उपहार है जीवन
वेद प्रताप वैदिक को शब्द श्रद्धांजलि
कुछ लोग
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
मारी थी कभी कुल्हाड़ी अपने ही पांव पर ,
చివరికి మిగిలింది శూన్యమే
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'
रखे हों पास में लड्डू, न ललचाए मगर रसना।
--जो फेमस होता है, वो रूखसत हो जाता है --
गायक - लेखक अजीत कुमार तलवार