वस्रों से सुशोभित करते तन को, पर चरित्र की शोभा रास ना आये।
वस्रों से सुशोभित करते तन को, पर चरित्र की शोभा रास ना आये,
कलयुग की पराकाष्ठा तो देखो, चेहरों पर हैं चेहरों के साये,
अहंकार का स्वर है ऊँचा, विवेक का स्वर कोई सुन ना पाए,
विवशता का लाभ उठाना, लोगों के मन को बड़ा ललचाये।
घर के आँगन के खंडित कर, अपने सपनों की ईंट चुराएं,
अपने सुख के आनंद से ज्यादा, औरों की पीड़ा में सुख ये पाएं।
आँचल तो अपना भी मलीन है, पर नज़र में औरों के दाग़ चुभते जाएँ,
उगते सूरज संग संत बने जो, ढलती शामें उनसे भय खाएं।
स्वार्थ का पलड़ा इतना है भारी, जो मति को मदमस्त बनाये,
स्वयं को श्रेष्ठ बनाने को, औरों की राहों में शूल बिछाएं।
हृदय औरों का छलना कला है, इस कला के महारथी कहलाना ये चाहें,
नैतिकता की बोली लग चुकी, अब संवेदनाओं को कौन बचाएं।
अपने सम्बन्ध सजीव हैं लगते, बेटियां औरों की प्रमाद बन जाएँ,
सम्मान भरी नज़रें तो दूर है, ये अपमानों के तीर चलाएं।
निर्मल मन जो टूट चुके हैं, अब कब तक वो चुप रह पायें,
कृष्णा की प्रतीक्षा नहीं अब, काली ने हाथों में खड्ग हैं थमाएं।