रामायण का नीतिमीमांसीय महत्व
रामायण का नीतिमीमांसीय महत्व
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-डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”
मानव कल्याण की भावना से परिपूर्ण , गृहस्थ कर्त्तव्यबोध एवं कर्मयोग की दीक्षा , धर्म रक्षा एवं पालन , मानवीय मूल्यों एवं दायित्व-बोध के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से युक्त “रामायण” भारतीय समाज , सभ्यता और संस्कृति में मार्गदर्शक एवं जीवनसृष्टा के रूप में अपनी सर्वोपरि भूमिका को निभाते हुए मानवीय मूल्यों और आदर्शों की स्थापना एवं पुनर्स्थापना करने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं के साथ ही राष्ट्र-निर्माण और विकास में सदैव पथप्रदर्शक रही है । बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करते हुए उनमें संस्कार और सद्गुणों का विकास तो माता-पिता और परिजन करते हैं , परन्तु समाज और राष्ट्र के प्रति उनकी जिम्मेदारी को सुनिश्चित कर उनमें उच्चतम मानवीय मूल्यों , सद्गुणों और संवेदनाओं का उच्चतम विकास रामायण जैसे शाश्वत ग्रंथों के स्वाध्याय , अध्ययन-अध्यापन और चलचित्र दृष्टि से ही संभव है । रामायण में स्वविवेक , स्वत: संज्ञान , उचित-अनुचित के प्रति सजगता , समाज और प्रकृति के प्रति मानव की जिम्मेदारी , स्वामी- सेवक , राजा-प्रजा, पिता-पुत्र , माता-पुत्र , भाई-भाई, पति- पत्नी , गुरु-शिष्य , भगवान-भक्त , मित्र-मित्रता और सगा-संबंधी जैसे अनेक रिश्तों को बखूबी दर्शाया गया है । इसमें यह भी बताया गया है कि अन्याय , अनीति , दुराचार , पाप इत्यादि वृतियां निश्चित रूप से विनाश को प्राप्त होती हैं तथा न्याय , सत्य , निष्ठा और मानवीय मूल्यों की सदैव विजय होती है । रामायण काल के समाज में न्याय , सत्य और सद्गुणों का सदैव सम्मान तथा दुर्गुणों की समवेत स्वर में भर्त्सना की गई है । यदि वर्तमान में रामायण के कुछ अंशों को भी जीवन में अपनाया जाए तो जीवन श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बन सकता है । वर्तमान संदर्भ में रामायण के महत्व को हम निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं –
1. ऋण-विचार(Concept of Rin) :-
हिंदू जीवन दर्शन एवं विश्वास के अनुसार – एक व्यक्ति तीन प्रकार के ऋण लेकर भौतिक शरीर धारण करता है यथा; देव ऋण , पितृ ऋण तथा ऋषि ऋण । रामायण में भी ऋण विचार का सामाजिक महत्व उजागर हुआ है । चाहे राजा दशरथ हों , चाहे राम , चाहे लक्ष्मण । इन सभी के श्रीमुख से ऋण के विचारों का सामाजिक महत्व उजागर हुआ है । ऋण के विचार का सामाजिक महत्व यह है कि इससे संबंधित कर्तव्य कर्मों को करने से देश का साहित्यिक धरोहर तथा वेदों में अंतर्निहित ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है और उसकी निरंतरता से संपूर्ण समाज को लाभ होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो मानवीय कर्तव्य को ऋण का रूप देकर लोगों को उनके कर्तव्यपालन के प्रति सचेत रखने का प्रयास किया गया है ।
2. पुरुषार्थ विचार (Concept of Purushartha) :-
पुरुषार्थ , उस सार्थक जीवन शक्ति का द्योतक है जो कि व्यक्ति को सांसारिक सुख-भोग के बीच अपने धर्म पालन के माध्यम से ईश्वर भक्ति या मोक्ष की राह दिखलाता है । पुरुषार्थ , मानवीय जीवन के चार स्तंभ है यथा; धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष । रामायण में “धर्म” पुरूषार्थ की महत्ता पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है । महर्षि वशिष्ठ , महर्षि विश्वामित्र , महर्षि भारद्वाज , महर्षि परशुराम , राजा दशरथ , श्री राम , लक्ष्मण , भरत , और स्वयं सीता के साथ-साथ हनुमान के चरित्र में धर्म पालन और धर्मरक्षा की सतत् अनुपालना दृष्टिगोचर होती है । रामायण में अर्थ पुरुषार्थ को भी कमतर नहीं आंका गया है , इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण महारानी कैकेयी द्वारा प्रस्तुत किया है । वहीं काम पुरूषार्थ की महत्ता का बोध विश्वामित्र और मेनका के संयोग में संकुचित रूप से तथा लोभ , कुइच्छा और कामनाओं के रूप में विस्तृत रूप से महारानी कैकयी के चरित्र में उद्घाटित हुआ है । परंतु यह भी बताया गया है कि काम पुरुषार्थ को ही जीवन-ध्येय मान लिया जाए तो इसके दुष्परिणाम भी भयंकर होते हैं । रामायण में सर्वोच्च पुरुषार्थ मोक्ष को आध्यात्मिक शक्ति से जोड़कर दर्शाया गया है । इसका आशय यह है कि मानव की साश्वत प्रकृति आध्यात्मिक है और जीवन का उद्देश्य इसको प्रकाशित करना है । मोक्ष द्वारा असीम आनंद और ज्ञान प्राप्त करना है । यही स्थिति “सच्चिदानंद” की स्थिति है , जिसमें सत् , चित्त और आनंद एकाकार हो जाते हैं । रामायण में राजा दशरथ , महर्षि वशिष्ठ , महर्षि वाल्मीकि तथा श्री राम द्वारा मोक्ष को भलीभांति समझाया गया है । रामायण में मोक्ष के लिए तीन मार्गों को बताया गया है – कर्मयोग , ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग ।
3. आश्रम व्यवस्था (System of Ashrama) :-
आश्रम व्यवस्था , हिंदू जीवन का वह क्रमबद्ध इतिहास है जिसका उद्देश्य मानवीय जीवन यात्रा को विभिन्न स्तरों में बांटकर प्रत्येक स्तर पर मनुष्य को कुछ समय तक रखकर उसे इस भांति तैयार करना है कि वह जगत की वास्तविकताओं और प्रयासमय क्रियात्मक जीवन की अनिवार्यताओं में से गुजरता हुआ अंतिम लक्ष्य “पर ब्रह्म” या “मोक्ष” को प्राप्त कर सके जो कि मानव जीवन का परम और चरम लक्ष्य है । रामायण में भी भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के अनुसार वर्णित चारों आश्रमों यथा; ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम व्यवस्था का उल्लेख है । रामायण में आश्रम व्यवस्था को निम्न रूपों में उल्लेखित किया गया है –
१. ब्रह्मचर्य आश्रम : बौद्धिक प्रगति ।
२. गृहस्थ आश्रम : गृहस्थ कर्तव्य पालन ।
३. वानप्रस्थ आश्रम : मोह-माया त्याग ।
४. संन्यास आश्रम : मोक्ष की खोज ।
4. गुरुकुल व्यवस्था (system of Gurukul):-
रामायण में गुरुकुल व्यवस्था का श्रेष्ठ और उत्तम उदाहरण प्रस्तुत होता है । गुरुकुल में गुरु और शिष्य का पारस्परिक संबंध अत्यधिक घनिष्ठ , आंतरिक तथा प्रत्यक्ष या आमने-सामने का दर्शाया गया है । गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा , भक्ति रखना शिष्य का परम कर्तव्य दर्शाया गया है । गुरु की आज्ञा शिरोधार्य होती मानी गई है । गुरु के चरणों की समालोचना करना , उनकी निंदा करना एवं उनपर मिथ्या दोषारोपण करना , केवल अक्षम्य अपराध ही नहीं , महापाप माना गया है । रामायण में वर्णित इस नैतिक नियम का उद्देश्य गुरु शिष्य के प्रति पारस्परिक संबंध को एक ऐसे स्तर पर लाकर सुदृढ़ बनाना था , जहां पर दोनों के बीच अंतः क्रियात्मक संबंध इस प्रकार का हो सके कि सांस्कृतिक परंपराओं पर तत्वों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरण सरलता और सहजता के साथ सुनिश्चित ढंग से हो सके । राम , लक्ष्मण , भरत ,शत्रुघ्न की गुरुकुल शिक्षा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । गुरुकुल व्यवस्था के कारण ही उक्त चारों भाइयों में आपसी भाईचारा , प्रेम , विश्वास , संस्कार , सद्गुण और एकता जैसे मूल्य उच्चतम विकास के रूप में उजागर हुए हैं ।
5. संयुक्त परिवार की अवधारणा (Concept of Joint Family) :-
भारतीय सभ्यता , संस्कृति और दर्शन के अनुरूप ही रामायण में भी पीढ़ियों की सतत् गहराई को अभिव्यक्त करने वाले “संयुक्त परिवार” की श्रेष्ठता को दर्शाया गया है जो कि अनुकरणीय और सार्थक है । यदि रामायण की दो पात्रों , महारानी कैकेयी और दासी मंथरा को नजरअंदाज किया जाए तो रामायण में संयुक्त परिवार की अवधारणा अनेक प्रकार के मानवीय मूल्यों की स्थापना में आधारस्तंभ रही है । इसी के कारण एक परिवार में प्रेम , विश्वास, संस्कार , सद्गुण , भाईचारा, एकता , वात्सल्य , धर्म , कर्तव्यपालन , आज्ञापालन , मर्यादापालन और आस्था जैसे मानवीय मूल्य स्थापित हुए हैं । राजा दशरथ का राम के प्रति प्रेम , प्रेम की पराकाष्ठा का उदाहरण है ।
6. अस्पृश्यता का अंत (And of untouchability) :-
रामायण में भगवान श्री राम द्वारा शबरी के जूठे बेर खाकर प्रेम की महत्ता को सर्वोपरि मानते हुए अस्पृश्यता को तिलांजलि दी है जो कि अनुकरणीय , सार्थक और अप्रतिम है । इसी इसी प्रकार निषादराज गुह्य तथा केवट का उल्लेख भी इस क्रम में किया जा सकता है । उचित-अनुचित के प्रति सजगता तथा सामाजिक समानता , रामायण में उल्लेखित श्रेष्ठ मूल्यों में से एक है ।
7. महिला सशक्तिकरण (Women’s Empowerment) :-
महिलाऐं ही संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं की वास्तविक संरक्षिका होती हैं | वे पीढ़ी दर पीढ़ी इनका संचारण और संरक्षण करती रहती हैं । अतः यह आवश्यक हो जाता है कि महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया जाए । रामायण में महिला सशक्तिकरण के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं जो निम्न वत हैं –
१. सीता स्वयंवर से यह उजागर हुआ है कि महिला अपने हेतु योग्य वर का चुनाव स्वयं कर सकती थी ।
२. राजा दशरथ द्वारा रानी कैकेई को दिए गए वरदान तथा रानी द्वारा मांगे गए वही वरदान इस बात का प्रमाण करते हैं कि महिला की बात को नजरअंदाज नहीं किया जाता था ।
३. देवी अहिल्या को शिला से नारी बनाने का प्रसंग भी नारी सशक्तिकरण का ही उदाहरण है ।
४. राजा दशरथ द्वारा अपने योग्य पुत्रों के लिए सीता के स्वयंवर के पश्चात एक साथ जनक की चारों योग्य पुत्रियों को बिना दहेज के ही विवाह हेतु चुनना भी महिला सशक्तिकरण का ही प्रमाण है ।
५. राम के वनवास के समय सीता का राम के संग वन में जाना भी महिला सशक्तिकरण की ओर इशारा करता है , क्योंकि इसमें सीता का स्वविवेक और स्वनिर्णय ही सर्वोपरि है ।
8. प्रकृति के प्रति चेतना (Awareness of Nature ) :-
रामायण में पर्यावरण , पारिस्थितिक- तंत्र और प्रकृति के साथ ही जैवविविधता के प्रति सम्मान और चेतना की अभिव्यक्ति प्रत्येक स्थान पर दृष्टिगत होती है । चाहे वह यज्ञ करने की क्रिया हो या फिर राम के वन में गमन की । क्रिया हो । रामायण में पर्वत , नदियां , जंगल सभी को देवताओं के समान पूजा जाने का विधान है । प्रकृति के प्रति मानव की जिम्मेदारी स्वयंसिद्ध थी जो कि स्व-विवेक और स्व-संज्ञान पर आधारित थी ।
निष्कर्ष एवं सुझाव (Conclusions and Suggestions) :-
चूंकि भारतीय समाज, संस्कृति , इतिहास और सभ्यता के साथ-साथ भारतीय दार्शनिक-भौगौलिक परम्पराओं मानवीय संवेदनाओं और नैतिक मूल्यों के विकास, संवर्धन और संरक्षण में अतुलनीय योगदान रहा है , तथापि इसी परंपरा के अंतर्गत हम अपने वैदिक ज्ञान और दार्शनिक अवधारणा के साथ- साथ रामायण में उल्लेखित मानवीय संवेदना , सद्गुण , संस्कार , प्रेम , आस्था , विश्वास , निष्ठा , न्याय , चिंतन और नैतिकता को मानवीय संवेदना और जीवन में आत्मसात कर मानवीय मूल्यों और नैतिकता की पुनर्स्थापना करके महत्वपूर्ण आयाम स्थापित कर सकते हैं , क्योंकि मनोवैज्ञानिक रूप से प्रारंभिक तौर पर ही बच्चों में नैतिकता (Ethics) और “जैव नैतिकता”(Bio-ethics) का संरक्षणवादी दृष्टिकोण और अवधारणा का विकास करके उनमें नैतिक-निष्ठा और कर्तव्य-बोध के साथ- साथ अंतरात्मा की चेतना को नैतिकता के लिए आधारभूत ईकाई के रूप में स्थापित किया जा सकता है ।