मुक्तक.
1
बोझ में मँहगाई के मत देश को उलझाइये
कौन कहता है जमीं पर चाँद लेकर आइये
एक निर्धन किसतरह जीता है मेरे देश में,
वक्त हो गर तो मेहरबां कुछ मुझे समझाइये |
2
देश में सच्चाई की कीमत बता भी दीजिये
या कि कहदें नाम भी सच्चाई का मत लीजिये
चूसते हैं रोज रिश्वतखोर खूँ मजबूर का,
ओ मेहरबां जागिये कुछ तो दवा अब कीजिये |
~ अशोक कुमार रक्ताले.