भारतीय भाषाएं एवं राष्ट्र भाषा के रुप में हिंदी
मित्रों भाषा भारती न्यास ,सीतापुर एवं नगर राज्य भाषा कार्यकारिणी समिति द्वारा जवाहर नवोदय विद्यालय में हिंदी भाषा को राष्ट्रीय गौरव प्राप्त कराने हेतु” भारतीय भाषाएं एवं राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की संभावना” विषय पर परिचर्चा गोष्ठी आयोजित की गई। जिसमें विशिष्ट अतिथि के रुप में मैंने निम्न विचार प्रस्तुत किये।
बच्चों ,शिक्षा प्राप्त करने का मूल उद्देश्य क्या है ?रोजगार प्राप्त करना? आजीविका चलाना?
प्यारे बच्चों, पतंजलि योग शास्त्र के अनुसार मनुष्य पंच क्लेशों से युक्त होता है। यह पंच क्लेश हैं ।अविद्या, अस्मिता, राग ,द्वेष और अग्निवेश।
“अविद्याअस्मिता राग द्वेष भिनिवेश: पंच क्लेशा:”
इन क्लेशों का सामान्य लक्षण कष्टदायिकता है। अविद्या सभी क्लेशों का मूल कारण है ,वह प्रसुप्त तनु विच्छिन्न और उदार 4 रूपों में प्रकट होती है ।अविद्या वह भ्रान्त ज्ञान है जिसके द्वारा अनित्य विषय नित्य प्रतीत होता है। अभिनिवेश नामक क्लेश में भी यही भाव प्रधान होता है।
अस्मिता अर्थात अहंकार बुद्धि और आत्मा को एक मान लेना अस्मिता क्लेश है। मैं और मेरा की अनुभूति का नाम अस्मिता है।
राग सुख और उसके साधनों के प्रति आकर्षण ,तृष्णा और लोभ का नाम राग है।
द्वेष दुःख या दुख जनक प्रवृत्तियों के प्रति क्रोध की जो अनुभूति होती है उसी का नाम द्वेष है । क्रोध की भावना तभी जागृत होती है जब किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को अनुचित अथवा अपना मान लें।
अभिनिवेश।
यौगिक क्रियाओं के द्वारा इन क्लेशों का नाश किया जा सकता है ,और उनका नाश कर परमार्थ सिद्ध किया जा सकता है।
मित्रों, ज्ञान का विस्तार बहुत अधिक है जीव विज्ञान समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान, नागरिक विज्ञान आदि अनेक विभाग है, जहां ज्ञान की सीमाएं असीम है। सर्वप्रथम हमें चेतन तत्व को चेतन तथा जड़ तत्व को जड़ अर्थात परिवर्तनशील समझना होगा ।यदि सत्य (चेतन) तत्व पर हमने अपने अहंकार वश मिथ्या विचार पैदा किया तो क्लेश और कष्ट की अनुभूति होगी। राग और द्वेष वश व्यक्ति अपनी सन्मार्ग से भटक जाता है ,और जीवन भर माया रूपी अज्ञान के भ्रम जाल में भटकता रहता है। वह स्वस्थ शरीर को ही सर्वस्व मान लेता है ।आत्मा का वजूद उसकी समझ से परे हो जाता है ।अतः विद्यार्जन का प्रथम मूलभूत उद्देश्य अविद्या का नाश होना चाहिए। जिससे सुखानुभूति प्राप्त होती है ।अविद्या के नाश से जीविकोपार्जन सुलभ होता है ,और ज्ञान की प्राप्ति होती है।व्यक्ति की दृष्टि में रस्सी का महत्व केवल इतना होना चाहिए , क्योंकि उसे जूट से निर्मित किया गया है, किंतु उसे सांप समझना अभिनिवेश क्लेश के कारण है ।क्योंकि ,हम सत्य पर असत्य का आरोपण कर रहे हैं। इस प्रकार जब क्लेशों से मुक्ति मिलती है तो विद्या अर्थात ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके लिए हमें योग का सहारा लेना चाहिए ।पतंजलि योग शास्त्र में योग की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है,
“योगश्चित्त वृत्ति निरोध:योग:” अर्थात चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है ।
जिस प्रकार शांत जलाशय में कंकड़ फेंकने पर वृत्ताकार लहरें उठती है और किनारे से टकराकर शांत होती है ,उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क में विचार या वृत्तियां उठती हैं। इन विचारों को शांत करने का माध्यम योग है।
विद्यार्थी जीवन में शारीरिक, हार्मोनल ,बौद्धिक विकास की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। जिज्ञासा ,कौतूहल, आकर्षण वश मन अशांत होता है, तब इस वृत्ति का निरोध योग के माध्यम से किया जा सकता है। चित् शांत होते ही प्रसन्नता मुख पर झलकने लगती है। व्यक्ति प्रसन्न चित ,मेधावी, एकाग्र होने लगता है ।उसमें सकारात्मक विचारों का उद्भव होने लगता है। नकारात्मक विचार तिरोहित हो जाते हैं।
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है “योग:कर्मसु कौशलम “अर्थात कर्मों में कुशलता ही योग है। चित्तवृत्ति शांत होते ही कर्मों में कुशलता आने लगती है। सफलता प्राप्त करने का यही एकमात्र माध्यम है ।
बच्चों! मनुष्य एक अद्भुत प्राणी है ,दृढ़ संकल्प और लगन से वह दुष्कर से दुष्कर कार्य सरलता से कर गुजरता है ।अतः बचपन से ही अपना उद्देश्य संकल्प के माध्यम से पूर्ण करना चाहिए। इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प किसी भी कार्य की सफलता की कुंजी है ।
यौवन के पड़ाव में हमें भले बुरे मित्रों की पहचान करना अत्यंत आवश्यक है। विद्यार्थियों को हमेशा कुसंग से बचना चाहिए । इसकी पहचान गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने द्वारा रचित रामचरितमानस के प्रारंभ के दोहों में दिया है। संत और असंत की पहचान उन्होंने इस प्रकार से की है और उनकी वंदना करते हुए कहा है ।
“बंदउ संत असज्जन चरना,
दुःख प्रद उभय बीच कछु बरना।”
“बिछरत एक प्राण हरि लेहीं,
मिलत एक दारुण दुख देही।”
तुलसीदास जी कहते हैं अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वंदना करता हूं। दोनों ही दुख देने वाले हैं ,परंतु उनमें कुछ अंतर यह है।वह अंतर यह है कि संत
तो बिछड़ते समय प्राण हर लेते हैं ,और असंत मिलते ही दारुण दुख देते हैं। दोनों संत और असंत जगत में एक साथ पैदा होते हैं पर एक साथ पैदा होने वाले कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है किंतु जोक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है ।साधु अमृत समान और असाधु मदिरा के समान होते हैं। दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रुपी अगाध समुद्र एक ही है ।शास्त्र में समुद्र मंथन से ही अमृत व मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।
बच्चों !भारत की राजभाषा हिंदी है और एक राज्य से दूसरे राज्य को जोड़ने वाली संपर्क भाषा भी हिंदी है, किंतु ,हिंदी भाषा को राष्ट्रीय गौरव से वंचित किया गया है। हिंदी हमारी मातृभाषा है। लालित्य ,वात्सल्य ,करुणा श्रंगार आदि नौ रसों से युक्त हमारी हिंदी भाषा व्याकरण में अति समृद्ध है। यह एक वैज्ञानिक भाषा है। हिंदी में छंदों का अनूठा शास्त्र समाहित है। देववाणी संस्कृत के पश्चात सबसे निकट हिंदी भाषा है, जिसकी तत्सम और तद्भव शब्दों का अनेकों बोलियों में प्रचलन है ।
भाषा भारती न्यास के संस्थापक श्री विकास श्रीवास्तव विमल जी के नेतृत्व में हमने संकल्प लिया है कि हिंदी भाषा को राष्ट्रीय गौरव दिलाकर रहेंगे। उच्च शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी है ।अंग्रेजी हमें आत्म गौरव से वंचित करती है। नैसर्गिक भावों का अनुवाद हमें अंग्रेजी में व्यक्त करना होता है, जिसे हम तथाकथित पढ़ा लिखा व्यक्ति कहते हैं ।
हमने भाषा भारती न्यास के प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते यह संकल्प लिया है कि हम चिकित्सा विज्ञान की समस्त पुस्तकें जो एमबीबीएस स्तर तक पढ़ाई जाती हैं, उनका हिंदी संस्करण प्रस्तुत करेंगे। इसलिए हमने चिकित्सक मित्रों से संपर्क करना प्रारंभ कर दिया है। प्रदेश इकाई व जिला इकाई का गठन शीघ्र ही हम करने जा रहे हैं। हिंदी चिकित्सा महाविद्यालय की स्थापना की घोषणा निकट भविष्य में प्रस्तावित है। जैसे ही चिकित्सा महाविद्यालय की स्थापना की जाती है। हम हिंदी में पाठ्यक्रम तैयार करने में संलग्न हो जाएंगे। यह अत्यंत श्रमसाध्य कार्य है, किंतु हम निश्चित समय में इस दुष्कर कार्य को मां वीणा पानी के आशीर्वाद से पूर्ण कर लेंगे, ऐसा हमारा संकल्प है ।इस संकल्प को हम आप, गुरुजन, वृद्धजन ,विद्वान, संत सभी मिलकर पूर्ण करेंगे। हमारा पूर्ण विश्वास है कि हम भाषा भारती न्यास के संस्थापक श्री विकास विमल जी के संकल्प को पूर्ण करने में हम खरे उतरेगें। सफलता हमारे कदम चूमेगी।
वंदे मातरम!
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
प्रदेश अध्यक्ष
राष्ट्रीय भाषा भारती न्यास उ.प्र.
सीतापुर।