बौद्ध नैयायिक अथवा मैथिल नैयायिक
न्यायशास्त्र और वाद-विवाद से बहुत सम्बन्ध है। – यदि बौद्ध, बाह्मण तथा दूसरे सम्प्रदायों का पूर्वकाल में आपस का यह विचार-संघर्ष और शास्त्रार्थ न होता रहता, तो भारतीय न्यायशास्त्र में इतनी उद्यति न हुई होती।वाद या विचारों के शाब्दिक संघर्ष की प्रथा के प्रभाव होते ही वादी-प्रतिवादी के भाषण आदि के नियम बनने लगते हैं। भारत में ऐसे शाखों का उल्लेख हम सर्व- प्रथम ब्रह्माण-ग्रर्थों के उपनिषद्-भाग में पाते हैं।
वेद का संहिताभाग मंत्र और ऋचाओं के रूप में होने से, वहाँ भिन्न-भिन्न ऋषियों के विवादों का वैसा उल्लेख नहीं हो सकता, तो भी वशिद्ध और विश्वामित्र का आरम्भिक विवाद ही इसका कारण हो सकता है, जो कि वशिष्ठ के वंशज, विश्वामित्र और उनकी संतान के बनाए ऋग्वेद के भाग को पढ़ना निषिद्ध समझते थे और वही बात विश्वानित्र के वंशज वशिष्ठ से सम्बन्ध रखने वाले मंत्र-भाग के साथ करते थे। ये बतलाते हैं कि मंत्र- काल और उसकी क्रीडा-भूमि सप्त-सिन्धु (पंजाब) में भी इसी प्रकार के बाद हुआ करते होंगे परंतु प्रमाण बहुत अधिक नहीं है । उन वादों में भी कुछ नियम बर्ते जाते होंगे और उन्हीं नियमों को भारतीय न्याय या तर्क शास्त्र् का बीज कह सकते हैं। तब कितनी ही शताब्दियों तक आर्य लोगों में यज्ञ और कर्मकाण्डों की प्रधानता रही, युक्ति और तर्क की शुद्धि के सामने उतनी चलती न थी। उस समय में भी कुछ लोग स्वतन्त्र विचार रखते थे और उनका कर्मकाण्डियो के साथ विचार-संघर्ष होता था, इसी विचार-संघर्ष का मुख्य फल हम उपनिषद् के रूप में पाते हैं। उपनिषद्- काल में तो नियमानुसार परिषदें थीं, जहाँ बड़े बड़े विद्वान् विवाद करते थे। इन परिषदों के स्थापक राजा होते थे, और बाद में विजय पानेवाले को उनकी ओर से उपहार भी मिलता था। विदेहों (तिरहुत) की परिषद् में इसी प्रकार याज्ञवल्क्य को हम विजयी होते हुए पाते हैं और अनेक उन्हें हजार गाय और धन प्रदान करते हैं।
कुछ ऐतिहसिक साक्ष के अनुसार सप्तसिन्धु से इस वादप्रथा को तिरहुत तक पहुँचने में उसे पंचाल (द्वारा और रुहेल खंड) और फिर काशी देश (बनारस, जौनपुर, मिर्जापुर, आजमगढ़ के जिले) से होकर आना पड़ा था। इस प्रकार प्राचीन ढंग की तर्क प्रणाली सब से पीछे तिरहुत में पहुँचती है। (यद्यपि आज कल मिथिला को तिरहुत का पर्यायवाची शब्द मानते हैं, जैसे कि काशी, बनारस का, किन्तु प्राचीन समय में ‘मिथिला’ एक नगर थी, जो विदेह देश की राजधानी थी। उसी तरह काशी देश का नाम था, नगर का नहीं नगर तो बाराणसी थी, जिसका ही बिगड़ा रूप बनारस है।) यद्यपि तिरहुत में वादप्रथा वैदिक युग के अन्त में (६०० ईसा पूर्व के आस पास पहुँची, किन्तु आगे कुछ परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न हुई कि भारतीय न्यायशाख के निर्माण में तिरहुत ने प्रधान भाग लिया और बौद्ध न्याय-शास्र के जन्म एवं विकास की भूमि यदि मगध को कहा जा सकता है, तो बाह्मण-न्यायशास्त्र के बारे में यह क्षेत्र का गौरव तिरहुत को प्राप्त है परंतु प्रश्न चिन्ह है प्रारंभ प्रथम बौद्ध न्याय-शास्र अथवा बाह्मण-न्यायशास्त्र उत्तर गौरव तिरहुत को प्राप्त होता है ।
अक्षपाद, वात्स्यायन, और उद्योतकर की जन्म-भूमि और कार्यभूमि तिरहुत ही थी, यद्यपि इसका कोई उत्तना पुष्ट-प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु जब हम विचार करते हैं कि ब्राहाण न्याय का निर्माण वेद और उसकी मान्यताओं की रक्षा के लिये मुख्य रूप से हुआ है। वेद तथा उसकी मान्यताओं पर प्रचण्ड प्रहार करने में मगध प्रधान केन्द्र बन रहा था, साथ ही जब उपनिषद् के तत्त्वज्ञान की अन्तिम निर्माणभूमि विदेह के होने पर भी ख्याल करते हैं तो यह बात स्पष्ट सी जान पड़ने लगती है कि ब्राह्मण न्याय शास्त्र की जन्मभूमि गंगा के उत्तर तरफ की भूमि तिरहुत ही होनी चाहिये, जिसके कि दक्षिण तरफ मगध के बौद्ध केन्द्र थे परंतु प्रश्न बौद्ध की शिक्षा भूमि मगध कैसे तथा वर्तमान बौद्ध शिक्षा ऐसी रही होगी ऐसी दर्पण में स्पष्ट नहीं होती है । “वादन्याय” की टीका में आचार्य शांतरक्षित (७४०- ८४० ई०) ने अबिद्धकर्ण श्रीतिचंद (१) दो नैयायिकों के नाम उद्दत किए हैं। जिन में प्रथम ने वात्स्यायनभाष्य पर टीका लिखी थी। ये दोनों ही ग्रंथकार वाचस्पति मिश्र (८४१ ई०) से पहले के हैं किन्तु उद्योतकर भारद्वाज से पहले के नहीं जान पड़ते। इनकी जन्म भूमि के बारे में भी हम निश्चय-पूर्वक कुछ नहीं कह सकते, किन्तु प्रतिद्वंद्विता-केन्द्र नालंदा होने से बहुत कुछ अधिक सम्भावना उनके तिरहुत के ही होने की होती है।
वाचस्पति मिश्र के बाद तो ब्राह्मण न्यायशास्त्र पर तिरहुत का एकच्छत्र राज्य हो जाता है। वह उदयन और बर्द्धमान जैसे प्राचीन न्याय के आचार्यों को पैदा करता है, और गङ्गेश उपाध्याय के रूप में तो उस नव्य-न्याय की सृष्टि करता है, जो आगे चल कर इतना विद्वतप्रिये हो जाता है कि प्राचीन न्याय शास्त्र की पठन-प्रणाली ही को एक तरह से उठा देता है। यद्यपि नव्य-न्याय के विकास में नवद्वीप (बंगाल) का भी हाथ है, तो भी हम यह निस्संकोच कह सकते हैं कि वाचस्पति मिश्र (८४१ ई०) के बाद से मिथिला (देश के अर्थ में) न्याय-शास्त्र (प्राचीन और नव्य दोनों ही) का केन्द्र बन जाती है, और हर एक काल में भारत के श्रेष्ठ नैयायिक बनने का सौभाग्य किसी मैथिल ही को मिलता है।
लेखक
भारतीय भाषाविद एवं साहित्यकार
त्रिपिटकाचार्य श्रीयुत भदन्त राहुल सांकृत्यायन
क्रमशः भाग -2