पुस्तक समीक्षा – ‘नाद और झंकार’
कृति-समीक्षा
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प्रकृति से एकाकार करती कृति –
‘नाद और झंकार’
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कवयित्री –
श्रीमती आदर्शिनी श्रीवास्तव
समीक्षक –
राजीव ‘प्रखर’
मुरादाबाद, उ. प्र.
प्रकृति-प्रेम सदैव से ही रचनाकारों का पसंदीदा विषय रहा है, जिससे होकर मनमोहक काव्य-कृतियाँ पाठकों के सम्मुख आती रहती हैं l मेरठ की जानी-मानी कवयित्री, श्रीमती आदर्शिनी श्रीवास्तव की उत्कृष्ट लेखनी से निकली, ‘नाद और झंकार’, ऐसी ही उल्लेखनीय एवम् पठन योग्य कृतियों में से एक है l कुल ६८ मनभावन रचनाओं से सजी इस काव्य-माला में, मानव एवम् प्रकृति के अटूट सम्बंधों को दर्शाते विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं l कृति के आरम्भ में सुप्रसिद्ध साहित्यकार-गण श्री
श्री अवनी रंजन, श्री कौशल कुमार (फ़्लैप पर), श्री यशपाल कौत्सायन (मेरठ), श्री आशुतोष (मेरठ), डॉ. कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ (मेरठ), डॉ. राजीव रंजन (गोंडा) एवम् आदरणीया संध्या सिंह (लखनऊ) के सुंदर व सारगर्भित उदबोधन मिलते हैं, जो इस काव्य-कृति की उत्कृृष्टता का स्पष्ट प्रमाण है l
‘नाद और झंकार’ काव्य-कृति की काव्य-माला का प्रारम्भ माँ शारदे की सुन्दर वंदना से होता है l तत्पश्चात् भगवान भास्कर के अनेक नामों से सुसज्जित एवम् पूर्ण वैज्ञानिकता लिये, ‘सूर्य उपासना’ तथा माता गंगा की सुन्दर स्तुति पाठकों के सम्मुख आती है l इसके आगे बढ़ने पर, मानव एवम् प्रकृति के सम्बंधों की विस्तृत व्याख्या करती मनभावन रचनाओं का क्रम आरम्भ होता है, जो कृति की पूर्णता तक अनवरत जारी रहता है l
‘नाद और झंकार’ एक ऐसी गीतमाला है, जिसके सभी मनके सम्पूर्णता व सुन्दरता लिये हुए हैं l गीत-क्रम के प्रारम्भ में ही, हृदय में सृजन के समय होने वाली प्रतिक्रियाओं का सुंदर चित्र प्रस्तुत करता मनमोहक गीत, ‘भीगे अपने केश सुखाए’ शीर्षक से आता है l इसकी कुछ पंक्तियाँ देखिये –
“मरुत अश्व पर भाव तरंगें l
कहाँ-कहाँ की सैर कराएँ ll
दृश्य, भाव, अनुभव सब मिलकर l
शांत पड़े मन को उकसाएँ “ll
इसी क्रम में अगला गीत, ‘जाग मोहिनी’ शीर्षक से भोर को मानो जीवंत कर जाता है, पंक्तियाँ देखिये –
“भोर हुई अब जाग मोहिनी,
रैन गई उठ दिवा जगा दे l
कम्पित कर दे पलक भ्रमर को,
मुख से उलझी लट सरका दे”l
उपरोक्त क्रम में एक अन्य गीत, ‘सँवर गई वसुंधरा’ से मन को झंकृत करती पंक्तियाँ –
“लो सोलहो सिंगार कर,
सँवर गई वसुंधरा l
विवश हुए हैं देवता भी,
देखने को यह धरा”l
जो कि भू-माता की महिमा-गरिमा को अत्यंत सुन्दर, सरल व सहज रूप में प्रस्तुत करती हैं l थोड़ा आगे बढ़ें तो संगीतात्मकता लिये हुए एक अन्य गीत, ‘घुँघरुओं के स्वर’ से कुछ पंक्तियाँ –
“वारि की बूँदें हुई हैं घुँघरुओं के स्वर l
आज चंदा क़ैद में है, चाँदनी के घर”l
निश्चित रूप से यह गीत, कृति के झंकार पक्ष का सशक्त प्रतिनिधित्व करता है l
हृदय को अपने नाद से झंकृत कर देने वाली यह कृति अंततः, ‘लुढ़का सिंदुरदान’ शीर्षक से दोहा-चतुष्पदी शैली की, एक मनभावन रचना के साथ विश्राम लेती है l कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं –
“कई दिनों से था रुका, ठहरी थी पहचान l
नये गीत को मिल गया, मनचाहा उन्वान”l
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, काव्य-सौंदर्य से सुसज्जित तथा व्याकरण के नियमों का पालन करती हुई यह कृति, उत्कृष्टता के शिखर को स्पर्श कर रही है l स्वच्छ एवम् स्पष्ट मुद्रण, स्तरीय मुद्रण-सामग्री सहित सजिल्द स्वरूप में तैयार की गयी यह कृति, निश्चित रूप से पाठकों के अन्तस को स्पर्श करने एवम् उनकी संवेदनाओं को साकार करने में पूर्णतया सक्षम है, जिसके लिये कवयित्री तथा प्रकाशक दोनों ही बहुत-बहुत साधुवाद के पात्र हैं l
कृति का नाम –
नाद और झंकार
कवयित्री –
श्रीमती आदर्शिनी श्रीवास्तव
प्रकाशन वर्ष –
२०१७
संस्करण-स्वरूप –
सजिल्द
कुल पृष्ठ –
९६
मूल्य –
रु. १५०/-
प्रकाशक –
उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ
८७९१६८१९९६, ९८९७७१३०३७