देशज से परहेज
भाषा और शब्दों के प्रयोग को लेकर अनेक तरह के दुराग्रह समय-समय पर पढ़ने और सुनने को मिलते हैं।कई बार भाषा की शुद्धता के नाम पर तो कई बार अपनी भाषा या बोली के प्रति अगाध प्रेम के कारण। भाषा की शुद्धता और अपनी भाषा से प्रेम को बुरा भी नहीं कहा जा सकता है। पर इस संबंध में विचार योग्य बात दुराग्रह है। दुराग्रह कभी भी सकारात्मकता को बढ़ावा नहीं देता और बिना सकारात्मकता के विकास की बात सोचना भी बेमानी ही कहा जाएगा।
बड़ी विचित्र और विड़बनापूर्ण बात लगती है, जब कोई यह कहता है कि अमुक रचना को पत्र- पत्रिका में या किसी पुस्तक के संकलन में इसलिए सम्मिलित नहीं किया जा सकता है क्योंकि रचना में देशज शब्दों का प्रयोग किया गया है।इस अस्वीकार्यता का कोई ठोस और वैज्ञानिक कारण नज़र नहीं आता। शब्द, भावों और विचारों को सशक्त रूप में व्यक्त करने का माध्यम होते हैं। कई बार लेखक काव्य – शिल्प का पालन करने के लिए देशज और विदेशी भाषा के शब्दों का प्रयोग करता है तो कई बार नवीनता का समावेश करने के लिए।बात यही पर समाप्त नहीं होती, कई बार उसे ऐसा भी प्रतीत होता है सटीक भावाभिव्यक्ति केवल देशज शब्द के माध्यम से ही हो सकती है और वह देशज शब्दावली के प्रयोग का लोभ संवरण नहीं कर पाता।
यहाँ इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है कि आखिर देशज शब्द किन्हें कहते हैं ?इस प्रश्न के उत्तर के लिए जब हम भाषाविदों के मत पर विचार करते हैं तो देशज शब्दों के संबंध में जो उल्लेख मिलता है उसके अनुसार जिन शब्दों की उत्पत्ति के विषय में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है कि वे किस भाषा या बोली से विकसित हुए हैं; जैसे – लोटा,जूता, पगड़ी अँगूठा आदि। दूसरे, वे शब्द जो अनुकरणात्मक होते हैं; जैसे- खटखटाना, हिनहिनाना, भिनभिनाना आदि। इसके अतिरिक्त यदि स्वनामधन्य लोगों का देशज से तात्पर्य हिंदी भाषी क्षेत्र की विविध बोलियों के शब्दों से है तो इस दुराग्रह को दूर करने की आवश्यकता है क्योंकि कवि या लेखक की भाषा देश, काल और परिस्थिति से प्रभावित होती है।
कवि और लेखक की शब्दों के प्रयोग को लेकर अपनी सोच होती है जबकि प्रकाशक और संपादक की अपनी। निरपेक्ष रूप में देखा जाए तो दोनों ही अपनी जगह सही भी हैं और गलत भी। पर सही और उचित उसी दृष्टिकोण को कहा जा सकता है जिससे साहित्य और भाषा के प्रवाह एवं विकास में कोई अवरोध उत्पन्न न हो। भाषा वही फलती- फूलती है जो खुले दिल से प्रत्येक भाषा और बोली के शब्दों को अपनी आवश्यकता अनुसार आत्मसात कर लेती है। हिंदी भाषा के विकास एवं प्रचार प्रसार के लिए संविधान में भी इसी व्यवस्था को हमारे संविधान निर्माताओं ने अंगीकार किया है। संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार ” संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।” इस दृष्टि से देखें तो हर भाषा और बोली की शब्दावली का अपना विशिष्ट महत्व है और किसी भी भाषा और बोली की शब्दावली और साहित्य को हेय या निकृष्ट नहीं समझा जाना चाहिए।
डाॅ. बिपिन पाण्डेय