गुरु की गरिमा
भारत सभ्यताओं, मान्यताओं और आदर्शों का देश है। इन सबके उदीयमान हेतु गुरु की भूमिका अहम होती है। वास्तव में गुरु दो शब्दों से मिलकर बना है।गु-अर्थात अंधकार और रु-अर्थात प्रकाश की ओर। अर्थात गुरु का अर्थ अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला होता है। अंधकार से तात्पर्य वह सब कुछ जो हमारे विकास के मार्ग में रोड़ा बनता है और विकास से तात्पर्य केवल भौतिक विकास ही नहीं अपितु मानसिक , शारीरिक ,आध्यात्मिक, सामाजिक और मानवीय विकास भी आता है। गुरु ज्ञान का खान होता है। अपने सार्थक मार्गदर्शन से वह समाज को देदीप्यमान करता है और युग प्रणेता बनता है।
गुरु शब्द से ही एक आदर्श का बोध होता है। वह आदर्श जिसका अनुकरण मोक्ष को प्राप्त कराता है, सर्व उत्तम पुरुष बना सकता है और भगवान की उपाधि दिला सकता है। प्रायः गुरु से आशय हम विद्यालयी जीवन के गुरु से लेने लगते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। वास्तव में वे सब गुरु हैं जो हमारा सम्यक मार्गदर्शक करते हैं। प्रथम गुरु हमारे माता पिता जो जन्म देकर अंगुली पकड़कर चलना सीखाते हैं।
इस प्रकार जन्म से मृत्यु तक अनेक गुरु हमारे जीवन में आते हैं जो हमें सीख देकर जीवन मार्ग प्रशस्त करते हैं। गुरु से प्राप्त ज्ञान को शिक्षा को कहते हैं। शिक्षा की उत्पत्ति संस्कृत के शिक्ष धातु से हुई है, जिसका अर्थ है – सीखना, सिखाना ।
गुरु वह साधन है जो मानव का सर्वांगीण विकास कराता है। शिक्षक समाज का दीपक है जो स्वयं जलकर समाज को प्रकाशित करता है। समाज रूपी दीपक में ज्ञान रूपी बाती को धैर्य रूपी तेल में डालकर स्वयं लौ बनकर जग को प्रकाशवान करता है।
गुरु की महिमा का तो वेदों ने बखान करते हुए भगवान से बढ़कर बतलाया है। चूकि गुरु दीपक की लौ होता है जो समाज को, सम्मान रूपी मधुर वायु की सहायता से प्रकाशित करता है। समाज को बदलने की क्षमता एक योग्य शिक्षक में होती है। पर कदाचित देखने को मिल जाता है कि जिसके सामने हमारे देवता भी नतमस्तक होते हैं, उनके सम्मान पर भी कुछ अराजक तत्वों के द्वारा ठेस पहुँच जाती है।
गुरु तो युग प्रणेता होता है, धर्मरक्षक होता है, तो ऐसे में इनका सम्मान हमारी सर्वउपरि जिम्मेदारी बन जाती है। एक समय था जब शिष्य वैदिक काल में गुरु आश्रम में रहते थे और सब प्रकार की शिक्षाएं गुरु मार्गदर्शन में ही प्राप्त किया करते थे। गुरु शिष्य परम्परा की आदर्शता में उत्कृष्टता थी। आज आधुनिक युग में इंटरनेट की इस द्रुतगामी सेवाओं के काल में वह मर्यादा नया रूप लेती नजर आ रही है।कहीं कहीं कुछ विद्यार्थी अपनी मद में खोए मर्यादा को भूल रहे हैं, जो सोचनीय है।
जिस देश में गुरु के अंतर्मन में शिष्यों के प्रति निष्ठा व आत्मीयता का संबंध हो वह देश निश्चय ही विश्व गुरु बन जाता है। हमारे गुरुजन की त्याग व शिक्षा हमें विश्व पटल पर आध्यत्मिक गुरु, सांस्कृतिक गुरु, योग गुरु और अन्य, अर्थात विश्व गुरु बनाये हुए है। जो देश विश्व गुरु है उसमें गुरु की महिमा और सम्मान की गणना या वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
चूंकि “गुरु साक्षात परब्रह्म”।
★★★★★★★★★★★
अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
★★★★★★★★★★★