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14 Feb 2021 · 1 min read

कोई शहर बाकी है

शायद अभी भी एक कसर बाकी है।
इस सफर में कोई शहर बाकी है।

देख चुके हैं कई मोहल्ले-गली,
बस अनजान अपना घर बाकी है।

कई इंसा मिले कई फरेब भी,
अभी तो ज़माना बदतर बाकी है।

ढूंढते हैं पाकीज़ा रहनुमा हम,
और खोजने को यूँ शहर बाकी है।

भूख प्यास सब आधी हो चुकी,
ओढ़ने को बेज़ार चादर बाकी है।

रखा है एक प्याला सुकून का सामने,
बस एक घूंट और ज़हर बाकी है।

कहां हुए ज़र्रा-ज़र्रा तबाह ‘मनी’,
और होने को अभी अब्तर बाकी है।

शिवम राव मणि

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