कैसे कह दूं
कैसे कह दूं पंडित हूँ
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मद काम क्रोध में पड़ा हुआ,
मैं मृगतृष्णा से भरा हुआ।
छल प्रपंचों की नहीं कमीं,
कोई न कोई रही गमीं।
मैं स्वयं ही निज से दण्डित हूँ,
तब कैसे कह दूं पंडित हूँ।
व्यापे है माया मोह सकल,
अभिलाषा से मन रहे विकल।
धन संम्पति संग्रह में रहता,
बहुधा मिथ्या बातें कहता।
न कहीं से दिखूं अखंडित हूँ,
तब कैसे कह दूं पंडित हूँ।
रसपान में नित आतुर हूँ,
कृतिम वचनों में चातुर हूँ।
न कर माला मस्तक चन्दन,
न सत्य वचन, हरि का वन्दन।
न स्वजनों से अभिनन्दित हूँ
तब कैसे कह दूं पंडित हूँ।
ब्रम्ह कहते किसको क्या जानूँ?
फिर खुद को ब्राह्मण क्यों मानूँ।
पांडित्य का मुझको भान नहीं,
ईश्वर कैसा अनुमान नहीं।
जब पूरी तरह से खण्डित हूँ,
तब कैसे कह दूं पंडित हूँ।
मुझको रहता है यही गिले,
ब्राह्मण मानूँ जब ब्रह्म मिले।
पांडित्य का अनुभव यदि पाएं,
फिर खुद को पंडित कहलाये।
जब झूठ से महिमा मंडित हूँ,
तब कैसे कह दूं पंडित हूँ।
पंडित बनना तो खोज गुरु,
कर दे सुमिरन तू रोज शुरू।
गुरु ब्रह्म तुझे दिखलायेगा,
तब तू ब्राह्मण बन जायेगा।
आत्मा कहेगी आनन्दित हूँ,
तब कह सकते हो पंडित हूँ।
– सतीश सृजन