उपज खोती खेती
उपज खोती धरती
-विनोद सिल्ला
विधा – आलेख
धरती को प्रकृति ने पोषक तत्व सौगात में दिए हैं। ये पोषक तत्व ही धरती की उर्वरा शक्ति है। मानव की अधिक धन कमाने की लालसा ही धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर रही है। व्यक्ति कुदरत के विधान न मानकर कुदरत के अपने इशारों पर नाचने को मजबूर करता है। जिसका पलटवार प्रकृति अवश्य करती है। जिसे मानव प्राकृतिक आपदा के रूप में तबाही झेलता है। अधिक उपज लेने की फिराक में ही किसान धरती की उर्वरा शक्ति नष्ट कर डालता है। पहले फसल चक्र का पालन किया जाता था। आज कृषक इन प्राकृतिक विधानों की उपेक्षा कर रहा है।
तीन दशक पहले तक किसान अपने जरूरत की तमाम खाद्य-सामग्री अपने खेतों में पैदा करता था। वह आज की तरह छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाजार पर निर्भर नहीं था। वह अपने खेतों में गुड़-शक्कर के लिए ईंख, चना, जौ, मूंग, उड़द, मसूर, मोठ, गुवार, अरहर, सरसों, कपास, पटसन सहित तिलहन व दलहन की फसलों की पैदावार करता था। प्रत्येक किसान अपने कुटुंब-कबीले के लिए शाक-सब्जियां भी उगाते थे। जो बीते जमाने की बात हो गई। आज हरियाणा – पंजाब सहित उत्तर भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर गेंहू-चावल को छोड़कर अन्य फसलें नाममात्र ही उगाई जाती हैं। एक ही तरह की फसल बार-बार पैदा करना धरती पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। साथ में वह छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बाजार पर निर्भर हो गया। उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर कपास की पैदावार होती थी। जो आज सिमटती जा रही है। मिश्रित खेती की जाती थी। उससे फसलनाशक कीट नहीं पनपते थे। मिश्रित खेती करना भी किसान ने छोड़ दिया।
प्राचीन काल में किसान धरती को परती छोड़ देता था। जिससे धरती अपनी खोई उर्वरा शक्ति फिर से पा लेती थी। आज आपा-धापी के युग में धरती को परती छोड़ना संभव नहीं लगता। बल्कि इसके विपरित चावल की या अन्य फसलों की ऐसी किस्मों का अविष्कार हो गया। जो सीमित समय में ही पैदावार दे देती हैं। धरती का अत्यधिक दोहन उस के उपजाऊपन को खत्म कर देता है। ऐसी परिस्थितियों में किसान अत्यधिक मात्रा में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाईयों का प्रयोग करते हैं। कीटनाशक दवाइयाँ फसलनाशक कीटों को तो मारती ही हैं। साथ में मित्र कीटों को भी मार डालती है। जिससे पर्यावरण में असंतुलन होना लाजिमी है। पहले गोबर की खाद का प्रयोग होता था।
वर्तमान समय में जागरूक किसान तो जैविक खाद (केंचुआ खाद) का प्रयोग करते हैं। मिट्टी व पानी की जांच करवा कर, कृषि विशेषज्ञ की सलाह लेकर खेती करते हैं। लेकिन ज्यादातर किसान न तो मिट्टी व पानी की जांच करवाते। न ही कृषि विशेषज्ञों की सलाह लेते। इसलिए मिट्टी व पानी का सही उपचार नहीं हो पाता। परिणामस्वरूप फसल न होने पर या कम होने पर किसान अपने ढंग से ही उपचार करते हैं। किसान जानकारी के अभाव में स्वयं द्वारा किए गये उपचार से धरती की उर्वरा शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
आज हम पोलीथीन का प्रयोग अंधाधुंध कर रहे हैं। पोलीथीन का निष्पादन मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है। किसान फसल कटाई के बाद, फसल अवशेषों को जलाकर धरती की उर्वरा शक्ति को नुकसान तो पहुंचाते ही हैं, साथ पर्यावरण को भी दूषित करते हैं। फसल अवशेषों के निष्पादन के अन्य विकल्प तलाशने होंगे। ताकि धरती की उर्वरा शक्ति और पर्यावरण बचाया जा सके। इनके अतिरिक्त धार्मिक कर्म-कांड उपरान्त बचा हुआ सामान, अंतिम संस्कार के बाद मृतक की अस्थियां, टूटी हुई देवी-देवताओं मूर्तियाँ नदियों व नहरों में प्रवाहित की जाती हैं। पूजा-पाठ में प्रयुक्त सिंदूर, काजल, नारियल, हवन की राख इत्यादि जल को दूषित करते हैं। बड़ी संख्या में लोग नहरों में नहाते हैं, कपड़े धोने हैं। नहाने व कपड़े धोने से साबुन के अव्यव पानी में मिल जाते हैं। जो पानी को दूषित करते हैं। बड़ी मात्रा में कल-कारखानों से निकलने वाला रासायन युक्त दूषित जल नहरों नदियों में छोड़ा जाता है। मृत पशु-पक्षी नदियों में डाल दिए जाते हैं। उसी जल को सिंचाई के लिए प्रयुक्त करने पर धरती की उर्वरा शक्ति को नुकसान पहुंचता है।
उत्तर भारत में चावल की पैदावार अधिक होती है। चावल की खेती में पानी की अत्यधिक लागत होती है। चावल की खेती के लिए अकेला नहर का पानी पर्याप्त नहीं। बड़े पैमाने पर नलकूपों द्वारा सिंचाई की जाती है। जिस कारण भूमिगत जल बहुत नीचे जा चुका है। बहुत से क्षेत्र डार्क जॉन घोषित हो चुके हैं। जहाँ सरकार ने नलकूप लगना निषेध कर रखा है। उन इलाकों में
नलकूप लगाने के लिए विभागीय अनुमति लेनी पड़ती है। इन सब कारणों के चलते ही धरती की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है।
हमने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया है। आज पृथ्वी को सर्वाधिक खतरा मानव से ही है। हमने प्रकृति का उपभोग ही नहीं संरक्षण भी करना होगा। हमने अपने तौर-तरीके बदलने होंगे। इको फ्रेंडली बनना होगा। ताकि धरती की उर्वरा शक्ति को बचाया जा सके। पर्यावरण का संतुलन बना रहे। पूरा विश्व खुशहाल रहे।
विनोद सिल्ला
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