आजकल कोहरा घना है।
आजकल कोहरा घना है
है कड़कती ठंड
हर निशा से हर दिवस तक
ओस कण के साथ
शीत का पाला घना है।
वो मिले थे
उस समय कोहरा घना था
कुछ कदम
हम साथ चलकर
मुस्कराकर
फिर मिलन के
गीत गाकर
एक दूसरे की शपथ खाकर
चल पड़े थे
ज़िन्दगी यूं ज़िन्दगी से
दूर होगी
कव पता था
उस समय भी
शीत का कोहरा घना था।
कंपकंपाती ठंड में
वो याद आये
याद आती
भूत की वो
स्मृतियां
चित्र सी मस्तिष्क
बसती
झलकियां
चौधरी की फूस झोपड़
आग की लपटे
वो सूखे पात
पेड़ों के
मुहल्ले के
सभी जन
तापते थे
सुलगती वो पोर
पत्तों की
इस समय भी
उस समय भी
शीत का कोहरा घना था।
आग बुझकर
राख बनकर
भूरी कुतिया
दौड़ आई
दर्जनों
नवजात पिल्ले
साथ लाई
रात्रि मे विश्राम
करते राख पर
गेह बनती पोर भी
हर रात में
इसलिए वो याद आई
इस समय भी
उस समय भी
शीत का कोहरा घना था।
रमेश त्रिवेदी
कवि एवं कहानीकार