बचपन
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भाग दौड़ भरे इस जीवन में
जब आंखों को बंद करता हूँ
सोचता हूँ
जीवन के बारे में
कैसा रहा
सफर ये मेरा
क्या किया है मैंने खास
क्या रहा सुनहरा जीवन में
सोचता हूँ।
सोचता हूँ
बचपन जो मेरा
रहा बड़ा ही खास
कूदते थे
खेलते थे
डर के ही सही
मन से ही सही
पलटते थे
पन्ने किताबो के।
सोचता हूँ
पल वो सुनहरे थे मेरे जो खास
सोचता हूँ
वो आ जाये वापस काश!
लेकिन आज हलचल सी मच गई
इस शांत समुद्र से मन में
आज तूफान आ गया है
इस शांत से मन में
बचपन का मैंने रूप देखा
शहर की एक होटल में
बचपन कुचल रहा था जहाँ
आँखों के मेरे सामने।
सोचता हूँ
जब उसकी उस
भोली सूरत के बारे में
जो कांप रहा था
मालिक की
इक आवाज लगाने में
हाय! ऐसा बचपन है
इस शहर के हर मुहाने में।
नन्दलाल सुथार
रामगढ़, जैसलमेर(राज.)