Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
1 May 2017 · 4 min read

रमेशराज की पिता विषयक मुक्तछंद कविताएँ

-मुक्तछंद-
।। ओ पिता ।।
मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ ओ पिता
ओ पिता मैं तुमसे पूछना चाहता हूं
मेरे इन निष्कंलक हाथों में
अहिंसा का हनुमान चालीसा थमाकर
इस तरह मुझे एक झूठे तप की आग से
गुजरने के लिए क्यों छोड़ गये हो?
मेरे साथ ये कैसा
अभिशाप जोड़ गये हो।

अहिंसा की बौनी दलीलें देते हुए
क्या कभी तुमने सोचा था
कि अत्याचार के विरोध में
जुबां न खोलना
सबसे बड़ी हिंसा होती है
जिसके तल्ख अहसास को
आगे आने वाली हर पीढ़ी
अपने सीने और पीठ पर
पड़े चाबुक की तरह ढोती है।

मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ ओ पिता
ओ पिता मैं तुमसे पूछना चाहता हूं
कि तुम्हारे तीन बन्दरों के आचरण पर
अमल करने वाले हमारे सोच
यूं ही कब तक किये रखेंगे
हमारी बन्द आंख,
जबकि किसी चोर दरबाजे से
इस व्यवस्था की हिंसक बिल्ली आती है
और हमारे सुख के कबूतरों को
चट कर जाती है।

मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ ओ पिता
ओ पिता, मैं तुमसे पूछना चाहता हूं
कि कब तक न सुनें हम
कानों में थोथे आदशों की
अंगुलियां डाले
सीता का करुण चीत्कार,
जबकि हमारे भीतर का जटायु
हमें धिक्कार रहा है,
हमारा थोथा अहं
हमें मार रहा है।

मैं तुमसे पूछना चाहता हूं ओ पिता
ओ पिता मैं तुमसे पूछना चाहता हूं
कि तुम ये कैसा पढ़ा गये
आजादी का पाठ
जिसे पढ़कर हम गुलामी को
स्वतंत्रता मान बैठे हैं
नैतिकता के खिलाफ
अहिंसा का चाकू तान बैठे हैं ।

मैं तुमसे पूछना चाहता हूं ओ पिता
ओ पिता मैं तुमसे पूछना चाहता हूं
कि सत्य की जीत का ढिंढोरा
पीटने के पहले
क्या तुमने कभी सोचा था
कि यहां सत्य की जीत कभी नहीं होती
जो जीतता है वही सत्य बन जाता है।

मैं तुमसे पूछना चाहता हूं ओ पिता
ओ पिता मैं तुमसे पूछना चाहता हूं
अपनी इस घुनी हुई लाठी के सहारे
कब तक सहता रहू
अपने पुरुषत्व पर
असभ्यता के वार
कब तक दर्शाऊं अपने ही दुश्मन से
एक नाठकीय प्यार।
जबकि समूचा जिस्म
उत्तेजना और आक्रोश का
व्याकरण बन चुका है
असत्य से लड़ना
मेरा आचरण बन चुका है।
-रमेशराज

————————————————
-मुक्तछंद-
।। कहां गये वो आदमी?।।
कहां गये वो आदमी
वो आदमी कहां गये
जिनके बारे में
बतलाया करते थे मेरे पिता?

वे आदमी
जिनकी रंगों में खून नहीं
देशप्रेम हिलौरे मारता था
जिन्हें उनका सकंल्प
अग्निसुरंगों से
हंसा-हंसा कर गुजारता था।

कहां गये वो आदमी
वो आदमी कहां गये
जिनके बारे में
बतलाया करते थे मेरे पिता?

वो आदमी
जिनकी अमानुषिक यातना का तहत
गूंगी न हो सकी ज़बान
जिन्होंने दहशत-भरी आवाजों से
फोड़े की तरह पका दिये
गोरी नस्लों के कान।

कहां गये वो आदमी
वो आदमी कहां गये
जिनके बारे में
बतलाया करते थे मेरे पिता?

वे आदमी नहीं
पिघली बर्फ के कतरे थे
जो नदी बन कर
इस देश की बंजर आत्मा में बहे थे
किन्तु मेरे बच्चे
आजादी मिलते मिलते
उस नदी का पानी
बस कीचड़ होकर रह गया
और आजादी का अर्थ
पूंजीपति की तिजोरी
और खादी की लंगोटी के बीच
कहीं खोकर रह गया |
उन लोगों के साथ
ये कितना बड़ा धोखा था
मेरे पिता ने यह भी कहा था।

कहां गये वो आदमी
वो आदमी कहां गये
जिनके बारें में
बतलाया करते थे मेरे पिता।
-रमेशराज

——————————————–
।। शायद मैं भी।।
जब भी मेरे और पिताजी के बीच
कोई दुख-भरी शाम पसरी होती है
पारिवारिक दायित्वों के
बोझीले अर्थो से लदी हुई,
मैं पिताजी के सामने बैठा होता हूं
गुमुसम-सा।

मैं पिताजी के चेहरे पर
तिरती हुई झुर्रियां का
इतिहास पढ़ने लगता हूं,
जिस पर अकिंत हैं
पिताजी के अन्तहीन संघर्ष
गहरे विषाद के क्षण
जीने के अप्रत्याशित हादसे
पपड़ाई सूखी झील-सी आखों में
मरी हुई सोन-मछलियों में
सड़े गले अवशेष।

उस वक्त मुझे लगता है
कि पिताजी के चेहरे की
अनगिनत झुर्रियां
एक-एक कर मेरे चेहरे पर
उतर रही हैं : लगातार।

पिताजी होते हैं
निर्विकार, एकदम शांत
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए
पहलवान छाप बीड़ी
कश-दर-कश खींचते हुए।

फिर भी मुझे लगता है
कि पिताजी के अन्दर कुछ है
ज्वालामुखी-सा सुलगता हुआ
नागफनी-सा कसकता हुआ।

पिताजी के होठों पर
दही जैसी जमी हुई चुप्पियां
संदर्भ हैं दमाग्रस्त मां के
बिना दवा के दम तोड़ते हुए
मेरे जवान बेरोजगार भाई के,
बिना दहेज
आत्महत्या करती हुई मेरी बहन के।
पांच साल से मुझे
कतरा-कतरा चूसती हुई
बेरोजगारी की जोंक के।

मन होने लगता है
और भी ज्यादा उदास
मेरे चेहरे पर उतर आती है
पिताजी के चेहरे की
सारी की सारी झुर्रिया।

मैं महसूसता हूं
जैसे कि अब मुझे भी
ग़म ग़लत करने के लिए
एक काठ के हुक्के की जरूरत है
मुझे भी चाहिए
कुछ पहलवान छाप बीडि़यां।
शायद मैं भी अब
पिताजी की तरह
बूढ़ा और अशक्त
हो चला हूं।
-रमेशराज
———————————————-
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-२०२००१

Language: Hindi
373 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.

You may also like these posts

बुजुर्ग बाबूजी
बुजुर्ग बाबूजी
प्रकाश जुयाल 'मुकेश'
ख्वाहिशें
ख्वाहिशें
Arun Prasad
बदले-बदले गाँव / (नवगीत)
बदले-बदले गाँव / (नवगीत)
ईश्वर दयाल गोस्वामी
हे ! माँ सरस्वती
हे ! माँ सरस्वती
Harminder Kaur
मैं
मैं
Ajay Mishra
3650.💐 *पूर्णिका* 💐
3650.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
साध्य पथ
साध्य पथ
Dr. Ravindra Kumar Sonwane "Rajkan"
बस इतना हमने जाना है...
बस इतना हमने जाना है...
डॉ.सीमा अग्रवाल
निश्चित जो संसार में,
निश्चित जो संसार में,
sushil sarna
वनिता
वनिता
Satish Srijan
*चुनावी कुंडलिया*
*चुनावी कुंडलिया*
Ravi Prakash
बेहद मामूली सा
बेहद मामूली सा
हिमांशु Kulshrestha
हृदय तूलिका
हृदय तूलिका
Kumud Srivastava
"इंसान, इंसान में भगवान् ढूंढ रहे हैं ll
पूर्वार्थ
मन डूब गया
मन डूब गया
Kshma Urmila
मारे गए सब
मारे गए सब "माफिया" थे।
*प्रणय प्रभात*
जिंदगी में आज भी मोहब्बत का भरम बाकी था ।
जिंदगी में आज भी मोहब्बत का भरम बाकी था ।
Phool gufran
बालबीर भारत का
बालबीर भारत का
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
शातिर हवा के ठिकाने बहुत!
शातिर हवा के ठिकाने बहुत!
Bodhisatva kastooriya
मेरे हमदर्द मेरे हमराह, बने हो जब से तुम मेरे
मेरे हमदर्द मेरे हमराह, बने हो जब से तुम मेरे
gurudeenverma198
प्रेम के खातिर न जाने कितने ही टाइपिंग सीख गए,
प्रेम के खातिर न जाने कितने ही टाइपिंग सीख गए,
Anamika Tiwari 'annpurna '
ॐ
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
विजया घनाक्षरी
विजया घनाक्षरी
Godambari Negi
मुक्तक
मुक्तक
surenderpal vaidya
चंद तहरीरो पर ज़ा या कर दूं किरदार वो नही मेरा
चंद तहरीरो पर ज़ा या कर दूं किरदार वो नही मेरा
पं अंजू पांडेय अश्रु
गंगा- सेवा के दस दिन (चौथादिन)
गंगा- सेवा के दस दिन (चौथादिन)
Kaushal Kishor Bhatt
उलझन !!
उलझन !!
Niharika Verma
"तब कोई बात है"
Dr. Kishan tandon kranti
5) कब आओगे मोहन
5) कब आओगे मोहन
पूनम झा 'प्रथमा'
सखि री !
सखि री !
Rambali Mishra
Loading...