हम उन्हें अच्छे नहीं लगते (कविता)
इस शस्य श्यामला भारत भूमि की
हर चीज उन्हें अच्छी लगती है
नदी, झरने, ताल-तलैया, सब कुछ….
पीले-पीले सरसों हों
या बौर से लदी अमरायी
या फिर
हमारे खून पसीने से लहलहाती फसल
सब कुछ उन्हें बहुत भाती है
हमारे श्रम से बनी
ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें
उन्हें बहुत सुकून देती हैं
पीपल का वृक्ष हो या
तुलसी का पौधा
या फिर दूध पीती पाषाण मूर्तियाँ
इन सबकी उपासना उन्हें अच्छी लगती है
पर हम उन्हें अच्छे नहीं लगते
सिनेमा हाल में एक ही कतार में बैठकर
हम फ़िल्में देखते हैं जरूर
पर चारपाई पर बैठकर
हमारा पढ़ना-लिखना उन्हें अपमानजनक लगता है
हम भी हैं इसी वसुंधरा की उपज
यह देश हमारा भी है जितना कि उनका है
परन्तु खिलखिलाते हुए हमारे बच्चे
उन्हें अच्छे नहीं लगते
खेतों में काम करती हुई
हमारी बहू-बेटियां
उनकी पिशाच वासनाओं का शिकार होती हैं
और हमारी सरकारी नौकरी
उनकी आँखों की किरकिरी है
हम घर में हों या बाहर
बस से यात्रा कर रहे हों
या फिर ट्रेन से
किसी संगीत सभा में हों
या स्कूल में
वे जानना चाहते हैं सबसे पहले
हमारी जाति
क्योंकि सिर्फ उनको ही पता है
हमारी नीची जाति होने का रहस्य
वे चाहते हैं कि
हम उनके सामने झुक के चलें
झुक कर रहें
झुक कर जियें
एक आज्ञा पालक गुलाम की तरह
– सुरेश चन्द