राम – मर्यादा पुरुषोत्तम

शोभित सिंघासन पर बैठे, करुणा सागर राम।
दीनबंधु जग के आधार, स्नेह सुधा के धाम।।
सत्य हेतु वन पथ गमन कर, त्याग दिया था ताज।
राज मुकुट की चाह न रखी, नीति रही पर साज।।
शत्रु मृदु, मित्रों के हितकारी, धर्म नियम के रक्षक।
कण-कण में उनकी महिमा, वेदों के प्रिय वाचक।।
दशरथ सुत वह सूर्य समान, जग में तेज बहाया।
राजसिंहासन छोड़ दिया, सत्य पथ का दीप जलाया।।
शक्ति अपार, शील अमोघ, करुणा के आधार।
हर युग में धर्म प्रणेता, जन-जन के पालनहार।।
सीता संग वनवास वरण कर, धैर्य दिया संदेश।
रघुकुल की मर्यादा रक्षित, नीति रही विशेष।।
लंका जाकर रावण मारा, धर्म विजय के हेतु।
अधर्म मिटा, न्याय सजा, सत्य बना अनुरक्त।।
सतयुग, त्रेता, द्वापर बीते, युग बदले संसार।
रामराज्य की चाह लिए, आज खड़ा संसार।।
न्याय, दया, त्याग, विनय का, अनुपम रूप अधीश,
धरती पर श्रीराम सम, कोई न दूसरा ईश।
सीता संग जब लौटे वन से, गूंज उठी धरा, गगन,
अयोध्या की गलियों में फिर, बज उठे विजय के रघुनंदन।
भरत, शत्रुघ्न, लखन के मन में, उमड़ा भाव अपार,
नेत्रों से बरसा अनुराग, हर्षित हुआ संसार।
राम नाम की ध्वनि से, गूंजा हर एक कोना,
प्राण प्रमोदित हो उठे, जैसे मिला हो सोना।
राज तिलक कर, ध्वज फहराया, प्रजा हुई हर्षित।
रामराज्य का रूप अनोखा, हर जन-जन संतुष्ट।।
न्याय प्रेम में लीन धरा थी, छल कपट नहिं ठौर।
धर्म बसा हर हृदय में, नित नव मंगल ठौर।।
सिंह समान वीर व्रतधारी, दृढ़ संकल्प अपार।
माता-पिता के भक्त थे जग में, स्नेह सहज साकार।।
त्याग, तपस्या, प्रेम, शुचिता, जीवन का आदर्श।
राम नाम जो जपे निरंतर, पाए भव से पार।।
✍️✍️Kavi Dheerendra Panchal