पूंजीपति

पूंजीपतियों के दीप जलता रहे
उसके लौ पर पूरे सभ्यताएँ, भावनाएँ, आत्माएँ
सब कोई अपने-अपने
हिस्से का रक्त-देह-मौत की चन्दाएँ
जिसे निरंकुश सरकार के
बाजारों में नीलामी की जा रही थी
जो इसके साक्ष्यी रहे उसे भी
अपने हिस्से का निर्मम हत्याएँ
भेंट करने पड़े
पर जितने शेष बच गये है वे महंगे-महंगे
अस्पतालों में
महंगे-महंगे फीस पर
रक्त बेचकर पूंजीपतियों के सेज सजाएं हैं
जिसके शय्या पर एक सुंदर देह वाली औरत का भोग!
आम जन के लिए कल्पना मात्र में सोच पाना भी
मृत्यु को प्राप्त करना है।
वरुण सिंह गौतम
Varun Singh Gautam
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