कुंडलिया छंद: एक विवेचन ( समीक्षा )

आधुनिक काल कुण्डलिया छंद का स्वर्णिम काल
‘कुंडलिया छंद एक विवेचन’, डॉ विपिन पांडे जी की सद्य-प्रकाशित पुस्तक है। यह पुस्तक कई अर्थों में मूल्यवान है क्योंकि इसमें समाहित विषय शोध के उपरांत लिखे गए हैं। सारी जानकारियों का स्रोत भी उद्धृत किया गया है।
सर्वप्रथम ‘कुंडलिया छंद की विकास यात्रा’ में यह जानने का प्रयास किया गया है कि कुण्डलिया छंद के प्रथम रचनाकार कौन थे। तुलसीदास ने कुण्डलिया में सृजन किया था या नहीं। हम्मीर रासो की कुण्डलिया कौन सी है। कुछ सम्भावित, कुछ असंभावित रचना और रचनाकारों की चर्चा से गुजरते हुए ये मानक रूप से मान लिया गया कि आधुनिक काल कुण्डलिया छंद का स्वर्णिम काल है क्योंकि कई साझा और एकल संग्रह इस छंद में आ चुके हैं। पुराने कुण्डलियाकारों की एवं उनकी रचनाओं की जानकारी दी गयी है। यहाँ एक पंक्ति ने आकर्षित किया, बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले। यह पंक्ति बचपन से सबकी जिह्वा पर थी पर आगे की पंक्ति पता नहीं थी। ये कुण्डलिया छंद है और सृजनकर्ता हैं गिरिधर दास जी। दोहे वाली पंक्तियाँ उद्धृत हैं।
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताहि में चित देइ।।
कुण्डलिया के बदलते स्वरूपों पर प्रकाश डाला गया है। ये स्वरूप दोहा और रोला तो हैं ही, कहीं कहीं अंतिम दो पंक्तियों में उल्लाला छंद का प्रयोग भी किया गया है। प्रारंभिक स्वरूपों में यह बाध्यता नहीं थी कि आदि और अंत समान शब्दों से हो।
‘अग्र ग्रन्थावली’ , ‘स्वदेशी कुंडल’ आदि पुस्तकों के आरंभिक प्रकाशनों के बारे में बताया गया है। बिहारीलाल के सुप्रसिद्ध दोहे को आगे बढ़ाकर भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा किया गया भाव पल्लवन काव्य सौंदर्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।
कुण्डलिया छंद मध्यकाल में उत्कर्ष को प्राप्त हुआ। नाग कुंडली, अनूप कुण्डलिया, राज छंद,कुंडलिनी छंद आदि अभिनव प्रयोग थे जो आकर्षक हैं।
ध्रुवदास के कुण्डलिया छंदों में भक्ति का स्वरूप देखा गया तो गिरिधर के छंदों में लोक चेतना की प्रधानता थी। राय देवीप्रसाद पूर्ण जी की ‘स्वदेशी कुंडल’ में जनजागरण और स्वदेशी आंदोलन पर बल दिया गया।
डॉ विपिन पाण्डेय जी द्वारा रचनाकारों की, उनकी पुस्तकों की, प्रकाशन की तथा उसमें कुण्डलियां की संख्या इशवी के साथ जानकारी देना एक विकट कार्य रहा होगा, पाठक ज्यों -ज्यों पुस्तक पढ़ेंगे यह बोध होता जाएगा।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी, इस खूबसूरत विषय के अंर्तगत माता की महिमा का गुणगान किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत कुल तेईस कुण्डलियाकारों की रचनाओं को स्थान दिया गया जिसमें बाबा बैद्यनाथ झा, शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’, नीता अवस्थी, डॉ विष्णु शास्त्री ‘सरल’, डॉ रंजना वर्मा, पोखनलाल जायसवाल, हातिम जावेद, तारकेश्वरी ‘सुधि’, सतेंद्र शर्मा ‘तरंग’, त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’, दीनानाथ सुमित्र, अनामिका सिंह ‘अना’, दिनेशचन्द्र गुप्ता ‘रविकर’, गाफिल स्वामी, अजय ‘अमृतांशु’, गजानंद पात्रे ‘सत्यबोध’, रीता ठाकुर, अनुराग पांडेय, गीता पांडेय ‘अपराजिता’, पुष्पलता शर्मा ‘पुष्प’, डॉ विपिन पाण्डेय, गरिमा सक्सेना, बलवीर सिंह वर्मा ‘वागीश’ शामिल हैं। लेखक का विषयानुरूप शोध पुस्तक की गुणवत्ता में वृद्धि कर रहा, यह कहना आतिशयोक्ति नहीं होगी।
नारी चेतना की अभिव्यक्ति , विषय में नारी की अबला से सबला बनने की यात्रा का वर्णन है। इसके अंर्तगत लेखक विपिन पांडेय जी ने सर्वप्रथम पुरुष कुण्डलियाकारों की रचनाओं को रखा है। इसके पीछे लेखक का मन्तव्य यह है कि “आखिर जिस पुरुष वर्ग पर तरह तरह के लांछन लगाए जाते हैं, उनकी नजर में नारी क्या है?” इसमें स्मृतिशेष कैलाश झा किंकर, डॉ कपिल कुमार, अशोक कुमार रक्ताले, अनुपम अवस्थी लाल, हरिओम श्रीवास्तव, राजपाल सिंह गुलिया, सुभाष मित्तल सत्यम, हीरा प्रसाद हरेंद्र, लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला, अनमोल रागिनी चुनमुन, डॉ प्रदीप शुक्ल, डॉ विपिन पांडेय, त्रिलोक सिंह ठकुरेला,पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पुत्तू’,की कुंडलियाँ शामिल हैं। सभी ने नारी की शक्ति को पहचाना है और उन्हें पूज्य माना है।
नारी पर मात्र पाँच महिला कुण्डलियाकारों में डॉ सरला सिंह ‘स्निग्धा’, तारकेश्वरी ‘सुधि’, रचना उनियाल, साधना ठकुरेला, शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’ शामिल हैं।
नारी पर सभी रचनाएँ पढ़ी जाएँ तो आदर्शात्मक स्थिति अधिक है और यथार्थ कम है।लेखक का कहना है कि नारी पर सृजन करने के लिए ईमानदार प्रयास की आवश्यकता है। इस विषय पर लेखक की असंतुष्टि सही है। काली, दुर्गा, अपमान, रोटी, चूल्हा से इतर उनकी शक्ति के यथार्थ को लिखा जाए।
बिन पानी सब सून, जैसाकि शीर्षक से स्पष्ट है कि जल के महत्व को बताती कुंडलियाँ इसमें शामिल हैं जिनमें अशोक कुमार रक्ताले, गाफिल स्वामी, कर्नल प्रवीण शंकर त्रिपाठी, कहकशाँ, मुरारी पचलंगिया, सुभाष मित्तल ‘सत्यम’, सत्यव्रत नाहड़िया, हरिओम श्रीवास्तव, शिवानन्द सहयोगी, डॉ विपिन पाण्डेय, श्लेष चन्द्राकार, बाबा बैद्यनाथ झा, नेफ सिंह निष्कपट, प्रदीप सारंग जी हैं। सृजन में सिर्फ समस्या की ओर इंगित करने के साथ समाधान भी बताया जाए तो वह सार्थक रचना कही जाएगी।
बेटी है सौभाग्य, विषय में चहकती, महकती, उड़ती, मचलती बेटियों पर रचनाएं मन मोह रहीं, साथ ही बेटियों की सुरक्षा की चिंता भी दिखाई दे रही।
निज भाषा…सब उन्नति को मूल, विषय चयन लेखक की उत्कृष्ट सोच का परिचायक है। हिन्दी भाषा को लेकर सबकी चिंता आवश्यक है क्योंकि उसके समांतर खड़ी अंग्रेज़ी राह अवरुद्ध कर रही है।
प्रकृति के सुरम्य रूप, यह विषय पुस्तक में रस, रंग और खुशबू की तरह है। पावस और बसंत का सौंदर्य, विरह , मिलन, धरती की शोभा आदि रचनाकारों की लेखनी से उतर कर पन्नों की शोभा बढ़ा रहे। लेखक ने बहुत तन्मयता से हर एक कुण्डलिया का चयन किया है। इसके लिए डॉ विपिन पाण्डेय जी साधुवाद के हकदार हैं।
आगे के पन्ने जो विषय लिया गया है वह है, ये तकनीकी दौर। वाकई, समसामयिक विषय का चयन आगे के पाठकों को बहुत रास आएगा। सभी ने कलम भी बहुत अच्छी चलाई। यह दौर यदि रिश्तों में दूरियाँ लाया तो रिश्तों में नजदीकियां लेकर भी आया। रचनात्मकता घटी और बढ़ी भी।हर आयु के लोग इस दौर को समझकर मनोरंजन कर रहे। लेखक विपिन पाण्डेय जी ने विषय चयन में अपनी सूझ-बूझ का परिचय दिया है।
भारतवर्ष त्योहारों का देश है और विषय चयन में ये न लिए जाएं ऐसा तो हो नहीं सकता। होली, दीवाली, तीज, रक्षाबंधन, वट सावित्री पूजा आदि त्योहारों के सुन्दर स्वरूप एवं उनकी सार्थकता बताई गई है। विषय भले ही एक हो पर अभिव्यक्ति के कई रंग सामने आते हैं। एक ही पुस्तक में सारे रंग निखर कर आये तो मन भी सतरंगी हो जाता है। उल्लास भर जाता है।
जीवन में हास्य-व्यंग्य न हो तो जीवन नीरस हो जाता है।एक होता है साधारण हास्य के लिए कुछ कहना, और दूसरा हँसते हँसते किसी को शब्द-शर से तिलमिला देना। गम्भीर और नैतिक विषयों के बाद रखा गया यह विषय सरलता और सहजता से मुख पर मुस्कान ला देता है। इसमें अधिकतर सत्ता को निशाना बनाया जाता है। आरक्षण और नई पीढ़ियों पर भी हास्ययुक्त कटाक्ष किये जाते हैं।मँहगाई, पश्चिमी संस्कृति, कानून,भगवान, रिश्ते आदि भी हास्य-व्यंग्य की धार पर आ जाते हैं। इस विषय पर पढ़ते हुए एक अनोखी बात सामने आई। इसमें जितनी भी कुंडलियाँ हैं, सभी पुरुष रचनाकारों द्वारा लिखी गयी हैं। महिलाओं द्वारा हास्य-व्यंग्य पर न लिखा जाना शायद इसलिए है कि पग पग पर व्यंग्य या तानों की शिकार होती रही हैं।अतः इसपर लिखना उनकी पसन्द में शामिल नहीं। लेखक द्वारा कुंडलियों का संचयन काबिले तारीफ़ है।
श्रमसाधक और किसान, सार्थक विषय है जिसपर सार्थक कुंडलियाँ रची गयी हैं। नैतिकता एवं लोकव्यवहार, विषय संदेशों से भरा है। सुविचार, नैतिक ज्ञान, स्वच्छ विचार, सद्व्यवहार का सदैव महत्व रहा है। लेखक द्वारा इनका संचयन करना पुस्तक को अत्यधिक मूल्यवान बना रहा।
आगे बढ़ने पर तीन कुण्डलियाकारों पर विशेष रूप से लिखा गया है। उनमें काका हाथरसी, बाबा वैद्यनाथ एवं ऋता शेखर ‘मधु’ हैं। काका हाथरसी की कुंडलियों को फुलझड़ियों के नाम से सम्बोधित किया गया है। बाबा वैद्यनाथ झा की रचनावली 1 को लोक चेतना से जोड़कर देखा गया। इंद्रधनुष-नवरस कुंडलिया संग्रह ऋता शेखर ‘मधु’ द्वारा सृजित है जिसका अभिनव प्रयोग के रूप में परिचय दिया गया।
सुन्दर , सार्थक, सटीक, शोधपरक पुस्तक के लिए लेखक डॉ विपिन पाण्डेय जी एवं श्वेतवर्णा प्रकाशन साधुवाद के पात्र हैं। यह पुस्तक नवोदितों के लिए सुखद मार्गदर्शन देने का काम करेगी। आगे भी लेखक साहित्यजगत को समृद्ध करते रहें व प्रकाशन की ओर से भरपूर सहयोग मिले। मेरी अतिशय शुभकामनाएं दोनों के साथ हैं।
ऋता शेखर ‘मधु’
पुस्तक – कुण्डलिया छंद एक विवेचन
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन
पृष्ठ – 200
मूल्य – 299/-
पुस्तक की गुणवत्ता देखते हुए मूल्य बिल्कुल सही है।