तन्हा लोग

खुद से मिलने निकले हैं तन्हा हम।
तलाशते फिरते हैं,जाने हैं कहां हम।
एक अंतर्मन की आवाज़ ,सुनते कैसे
इतने कोलाहल में ,सपने बुनते कैसे।
खुद को देखूं बार बार ,पर कैसे समझूं
जितनी करूं मैं कोशिश,उतना उलझूं।
घाट घाट का पीया पानी ,बैठे धूनी लगा
ऐसी क्या नाराजगी ,कुछ रब्बा समझा।
तन्हाई के रंग बताऊं,होती खुद से जंग
देख सके हम खुद को वहीं नंग धड़ंग ।
सुरिंदर कौर