विकास की होड़ में भटकती पीढ़ी

कभी इंसान पेट भरने के लिए मेहनत करता था, अब स्टेटस दिखाने के लिए भाग रहा है। पहले सादगी में संतोष था, अब सुविधाओं के ढेर के बावजूद बेचैनी है। भौतिक विकास की अंधी दौड़ ने जिंदगी को आसान जरूर बनाया है, लेकिन क्या वाकई खुशहाल भी बनाया है?
आज के हालात बताते हैं कि हमने तरक्की तो की है, लेकिन अपनी शांति, रिश्ते और सेहत की कीमत पर। सवाल उठता है—क्या यही असली विकास है?
कभी घरों में एक साथ बैठकर बातें होती थीं, परिवार मिलकर खाना खाता था, बुजुर्गों की बातें सुनी जाती थीं। अब एक ही छत के नीचे 5-6 लोग रहते हैं, लेकिन हर कोई अपने-अपने मोबाइल में खोया रहता है। एक ही कमरे में होते हुए भी कोई किसी से बात नहीं करता, सब डिजिटल स्क्रीन की दुनिया में कैद हैं।
पहले घर में महफिलें जुटती थीं, अब वाई-फाई चलता है। पहले बच्चे दादा-दादी से कहानियां सुनते थे, अब यूट्यूब और नेटफ्लिक्स से एंटरटेनमेंट लेते हैं।
कभी दादी-नानी रात को कहानियां सुनाया करती थीं—राजा-रानी की, परियों की, नैतिकता की सीख देने वाली किस्से-कहानियां। वो सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि संस्कारों की पाठशाला थीं। लेकिन अब बच्चों की दुनिया कार्टून, मोबाइल गेम्स और सोशल मीडिया तक सीमित हो गई है।
बच्चे धार्मिक बातें, पंचतंत्र, जातक कथाओं, से अनजान हैं। कहानियों के जरिए जो जीवन के मूल्य सिखाए जाते थे, वे अब स्क्रीन पर अनफिल्टर्ड कंटेंट में खो गए हैं। यही वजह है कि नई पीढ़ी जड़ों से कट रही है।
शारीरिक मेहनत खत्म, बीमारियां बढ़ीं
पहले लोग खेतों में काम करते थे, साइकिल चलाते थे, कुएं से पानी निकालते थे—इन सब कामों से शरीर फिट रहता था। अब एयर कंडीशनर में बैठे-बैठे दिन गुजरता है, खाने में फास्ट फूड हावी हो चुका है, और वॉक करने का भी समय नहीं मिलता।
नतीजा? मधुमेह, मोटापा, ब्लड प्रेशर और मानसिक तनाव हर उम्र के लोगों को जकड़ रहा है। पहले उम्र के आखिरी पड़ाव में बीमारियां घेरती थीं, अब 30-40 साल की उम्र में ही दवाइयों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
असंतुलित दिनचर्या: नींद कम, तनाव ज्यादा
पहले लोग सूरज उगने से पहले उठते थे, रात में जल्दी सोते थे। अब रातभर मोबाइल, टीवी और लैपटॉप की स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रहते हैं। सुबह देर से उठते हैं, दिनभर थकान बनी रहती है।
काम का दबाव, सोशल मीडिया की लत और अनियमित जीवनशैली ने शरीर को अंदर से खोखला कर दिया है। पहले कम सोने का मतलब कड़ी मेहनत होता था, अब कम सोना मोबाइल की लत का नतीजा है।
—
रिश्तों में दूरियां, सोशल मीडिया की नजदीकियां
पहले रिश्ते निभाने के लिए समय दिया जाता था, अब सोशल मीडिया पर एक “लाइक” या “फॉरवर्ड मैसेज” भेजकर रिश्तेदारी निभाई जाती है। दोस्ती और परिवार बस ऑनलाइन अपडेट बनकर रह गए हैं।
पहले मुसीबत में सबसे पहले पड़ोसी और रिश्तेदार खड़े होते थे, अब मुश्किल वक्त में सोशल मीडिया के दोस्त कहीं नजर नहीं आते। असली दुनिया से नाता कमजोर पड़ रहा है, और वर्चुअल दुनिया पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।
—
क्या यही विकास है?
आज हमारे पास हर सुविधा है—गगनचुंबी इमारतें, चौड़ी सड़कें, महंगी गाड़ियां, ब्रांडेड कपड़े। लेकिन फिर भी बेचैनी क्यों बढ़ रही है?
पर्यावरण का संकट: विकास के नाम पर जंगल कट रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।
मानसिक शांति की कमी: सुविधाएं बढ़ीं, लेकिन बेचैनी भी उसी रफ्तार से बढ़ गई।
संतोष का अभाव: पहले कम में भी संतोष था, अब ज्यादा मिलने पर भी और ज्यादा की चाहत बनी रहती है।
बिखरते रिश्ते: पहले परिवार एक साथ बैठकर खाना खाते थे, अब सब अपने-अपने मोबाइल में उलझे रहते हैं।
—
खतरे की घंटी या सुधार का मौका?
अगर यही चलता रहा, तो आने वाले समय में लोग और ज्यादा अकेले, बीमार और तनावग्रस्त होंगे। रिश्तों की अहमियत खत्म होगी, मानसिक बीमारियां बढ़ेंगी, और लोग असली दुनिया से कट जाएंगे।
लेकिन अभी भी वक्त है। हमें समझना होगा कि असली विकास सिर्फ भौतिक चीजों से नहीं, बल्कि मानसिक शांति, अच्छी सेहत और मजबूत रिश्तों से होता है।
—
वक्त है संभलने का
विकास जरूरी है, लेकिन अगर वह सुकून और खुशियों को खत्म कर दे, तो उस पर सवाल उठाना भी जरूरी है। हमें आधुनिकता और परंपराओं के बीच संतुलन बनाना होगा।
परिवार के साथ वक्त बिताइए, असली रिश्तों को अहमियत दीजिए, और इस भागदौड़ में खुद को खोने से बचाइए। वरना यह विकास नहीं, बल्कि एक ऐसा भटकाव होगा, जहां पहुंचकर भी लगेगा कि हम कहीं नहीं पहुंचे।