जगती विधान
///जगती विधान///
पर्ण पल्लवों का झीना रव,
अरु पुष्पों की प्रमुदित मुस्कान।
अहे! पुण्य शालिनी जगती,
हैं तेरे अविकल रुचिर गान।।
सरिताओं का प्रवाह कल कल,
मधु स्रोतों का सरस वितान।
तेरे इन स्वरों का मंथन वेधन,
खोल देता मन अन्तर विहान।।
लोक रंजीत संगीत तुम्हारा,
तेरे ही मधु स्वर अवधान।
पुण्य धरा तुम पुण्य कारिणी,
तेरी झंकृत वीणा अम्लान।।
सुधा सरस संगीत नवल,
परा प्राणमयी शक्ति अजान।
हे सुधाकरी तुम जगतपालनी,
पोष तेरा पवि प्रगट विधान।।
शत शत नमन तुम्हें जन जन का,
हे मां तुम करुणामयी पराप्राण।
सम्मोहित करते कलरव जग में,
सुधिजन पाते पथ पाथेय प्रमाण।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)