ग़ज़ल

ग़मज़दा हूँ, रोने की बड़ी ख़्वाहिश है,
ख़ुशी तलाश रही…थोड़ी देर रोने दे।
कभी-कभी ही तो ढूंढती तन्हाइयां मैं,
मेरी तन्हाइयों में मुझको जरा होने दे।।
संग तेरे किनारे की जो ख़्वाहिश थी,
अभी है ज़िद मुझे कश्तियाँ डुबोने दे।
ख़ुदी से अपनी बेज़ार हो चुकी इतनी,
मेरी तन्हाइयों में मुझको अभी खोने दे।
सफ़र-ए-ज़िंदगी ख़त्म क्यों नही होती,
बहुत थकी हूँ अभी…थोड़ी देर सोने दे।
तमाम उम्र गुजरी ख़्वाहिशें पूरी न हुईं,
न कर हताश थोड़े ख्वाब मुझे बोने दे।
भला जो चाहते ऐ दोस्त छोड़ दे तन्हा,
मेरे वजूद में तू मुझको आज खोने दे।
एहसां किसी का…ना लिया अब तक,
ये बोझ मेरा है बस मुझको यार ढोने दे।
तेरी नफ़रत में जीने की हिम्मत न रही,
शरीर मिट्टी का है मिट्टी में आज होने दे।
कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’✍️
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश