गीत गाती हूँ।

#गीत_गाती_हूँ
यदि मिले अवहेलना भी, मुस्कुराती हूँ।
साम्यता में जीवन जीती, गीत गाती हूँ।।
सर्वश्रेष्ठ है जगत में बस यहाँ सद्कर्म।
है यहाँ अंधेर नगरी समझ लो यह मर्म।।
आँसुओं के घूंट पीकर, मुस्कुराती हूँ।
साम्यता में जीवन जीती, गीत गाती हूँ।।
याद रखता है जमाना, आचरण, सद्भाव।
हृदय को उदार रखो, ना रखो दुर्भाव।।
ज़िंदगी के सत्य संग प्रतिक्षण बिताती हूँ।
साम्यता में जीवन जीती, गीत गाती हूँ।
ना रहूँगी मौन अब, मैं बन चुकी परवाज़।
लेखनी की धार से आती मेरे आवाज़।।
हो कोई दुर्लभ विषय पर समझ जाती हूँ।
साम्यता में जीवन जीती, गीत गाती हूँ।।
आयु से अनुभव का ये रिश्ता पुराना है।
ठोकरें खाकर सिखाता ये जमाना है।।
कौन क्या कहता कभी ना ये छिपाती हूँ।
साम्यता में जीवन जीती, गीत गाती हूँ।।
थी बड़ी मासूम मैं, अब तो सयानी हो गई।
रहस्यमयी थी जो, जानी पहचानी हो गई।।
चेहरे पर चेहरा छुपा, पर पढ़ ही जाती हूँ।
साम्यता में जीवन जीती, गीत गाती हूँ।।
@स्वरचित व मौलिक
कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’✍️
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।
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