दोहा पंचक. . . . . मानव
दोहा पंचक. . . . . मानव
मानव चलता जब कभी, कुदरत के विपरीत ।
कब जीता वो सृष्टि से, मौसम जाते बीत ।।
किसने जाने आज तक, मानव मन के भेद ।
सुख की गागर में करें, अपने ही सौ छेद ।।
मानव मन का आजकल, अजब हुआ व्यवहार ।
चौखट पर संस्कार की, दूषित हुए विचार ।।
मतलब के अनुरूप ही, मानव बदले रंग ।
मानव के इस रूप से, गिरगिट हो गई दंग ।।
मानव मन की उलझनें, कब होती साकार ।
नकली भी असली लगे, मुस्कानी संसार ।।
सुशील सरना/17-3-25