Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
10 Mar 2025 · 5 min read

ललकी मां

अतीत के गह्वर से अनायास ही कुछ स्मृतियां बाहर आई।
कलम इतने विवश हो उठे कि कागजों पर अक्षरों को उकेरे बिना रहा न गया। आज भी मेरे स्मृतिपटल पर उन दिनों की
यादें सुखद तथा दुखद दोनों ही रूपों में अंकित थे।
बात उन दिनों की है जब हम हर गर्मियों की छुट्टियों में गांव जाया करते थे। संयुक्त परिवार था, कुल मिलाकर हम ग्यारह भाई बहन थे , जिसमें पांच बहनें और छह भाई थे। पिताजी अध्यापक थे, न चाहते हुए भी जीविका की तलाश में कोलकाता में रहने लगे थे । शहर के ही स्कूल में हमारा दाखिला करवा दिया था किंतु गर्मी की छुट्टी के दो महीने पहले से ही मैं और मेरा भाई कैलेंडर में निशान लगाकर बेसब्री से गांव जाने की प्रतीक्षा किया करते थे । जब गांव पहुंचते तब वहां भी खूब धमाचौकड़ी मचाया करते थे । आम का महीना होता था, आम के पेड़ों पर छोटे-छोटे आम हुआ करते थे , हम पूरा एक महीना वहां पर बीताते थे। उन एक महीनों में हमलोग आम के बगीचे में तरह – तरह के कार्यक्रम किया करते। छोटे-छोटे आमों को तोड़कर नमक के साथ खाना, पेड़ पर निशाना लगाकर आम तोड़ना, पेड़ों की छाह में चटाई बिछाकर लेटना इत्यादि। आम के बगीचे में आम की रखवाली के लिए सुबह – सुबह बहनों की टोली निकलती थी और खाने के लिए बासी रोटियों में नमक और मिर्च को बुक कर रख लिया करते थे। जब गर्मियों के महीनों में हल्के-फुल्के आंधी तूफानों के साथ बारिश होती थी तब वो पल हमारे लिए उल्लास का विषय बन जाया करता था क्योंकि ऐसे में आमों की बौछार होती थी और हम उसे झोला लिए बिछने को दौड़ पड़ते थे। बड़ा ही सुखद एहसास दिलाने वाला पल था, लेकिन उन सुखद पलों में एक पल ऐसा भी आया जब वास्तविकता को स्वीकार कर पाना मेरे लिए असहनीय ही नहीं अत्यंत पीड़ादायक भी था।
हर बार की तरह इस बार भी हम गांव गए थे आंधी और तूफान में गर्जन-तर्जन के साथ खूब बारिश भी हुई थी। इस बार आम के साथ हमारे बगीचे में आम की एक मोटी डाली भी टूट गई थी। यूं तो डाली का टूटना एक साधारण सी बात थी किंतु यह कोई साधारण बात नहीं रह गई थी । सवाल यह था कि उस डाली को आंगन तक लाए कौन? हम सभी भाई-बहनों ने तो हाथ खड़े कर दिए लेकिन एक थी हमारी ललकी मां, जो रिश्ते में हमारी बड़ी मां थी, किंतु पता नहीं उनका यह नामकरण किसने किया, पूछने पर हंसकर टाल दिया करती थी, उनके लिए किसी भी परिस्थिति में हार मान लेना मुश्किल था, और अपने आम की डाली को वह, किसी और को ले कर जाने दे, यह भी नामुमकिन था। उस डाली को घर तक लाने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कंधे पर ले ली, हमें चार बातें सुनाकर आम के बगीचे से घर तक की पूरी दूरी उन्होंने डाली को कंधे पर लिए ही तय कर ली। आंगन में आते-आते बेचारी इतनी थक गई थी उनकी सांसें फूल रही थी और कंधा भी पूरी तरह से लहूलुहान हो गया था। उनकी हालत देखकर मुझे भी थोड़ी शर्मिंदगी हुई। मुझे भी एहसास हुआ कि काश थोड़ी दूर उस डाल को खींचने में मैंने भी मदद की होती किंतु पता नहीं उस समय नादानी में मैंने ऐसा क्यों नहीं किया। हमारे दादाजी हर वक्त बीमार रहा करते थे तो मेरे एक भाई ने मजाक बनाते हुए कहा कि दादाजी के गुजरने पर यह लकड़ी बहुत काम आएगी । लकड़ी की व्यवस्था करने में मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी । हमने उसे डाटा फिर ढहाका लगाकर सभी हंसने लगे। उन ठहाकों की आवाज के बीच ललकी मां अपने कंधे के ज़ख्म को भूल सी गई । बाकी के बचे कुछ दिन ललकी मां के साथ बहुत अच्छे कट रहे थे । पता नहीं ललकी मां जब भी मुझे चबूतरे पर बर्तन मांजते देखती, चूल्हे से छाई निकाल कर साफ-सफाई करते हुए देखती तो वह बहुत ही गुस्सा हो जाया करती थी। वह मुझे समझाती कि “तुम काम क्यों करती हो बर्तन क्यों मांजती हो, मुझे देखो मैं तो अपनी बेटियों से कोई काम नहीं करवाती।‌” मुझे उनका यह कहना अच्छा नहीं लगता था और जब मैं यह बात अपनी मां से कहती तो वह मुझे कहती कि “तू उनसे बात ही ना किया कर”। मेरे अंदर इतनी भी समझ नहीं थी कि मैं यह समझ सकूं कि मुझे काम करने से मना करने के पीछे उनकी मनसा क्या थी । मुझे लगता था अपनी मां की हर बात मानना बेटी का कर्तव्य होता है और ललकी मां का यह समझाना कि ‘तुम काम ना कर’ यह गलत बात है, लेकिन कहीं ना कहीं ललकी मां की उस ममता को मैं नहीं देख पाई जो मुझे काम करते देख उन पर बीतता था।
फिर उन दिनों ललकी मां ने मुझे तरह-तरह के व्यंजन बनाकर खिलाएं। कम तेल में बने हुए करेले के भरते , दाल पीट्ठी खिलाया जिसका स्वाद में आज तक नहीं भूल सकती। मुझे उनका बनाया हुआ सब कुछ बहुत अच्छा लगता क्योंकि मैं अपने मां के हाथों का बना न खाकर कोई नया ही स्वाद चख रही थी। तेल और मसाले की कमी होती थी पर प्यार भरपूर होता था। फिर कुछ दिनों के पश्चात हम हंसी-खुशी कोलकाता वापस आ गए।
कोलकाता वापस आने के महज तीस दिनों के बाद एक फोन कॉल आया जिसमें भैया ने बताया कि ललकी मां अब नहीं रही । मैं बहुत जोर से चीखी, बहुत चिल्लाई, बहुत रोई मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो गया, जीवन के इस कठोर तक सत्य को सरलता से स्वीकार कर पाना मेरे लिए अत्यंत ही पीड़ा का कारण बना । स्वभावतया मनुष्य लगातार रो भी नहीं सकता, मेरा रुदन भी शांत हुआ। मन सूखे रेगिस्तान की भांति प्रेम रूपी आद्रता पाने को व्याकुल हो उठा। वापस जब गांव गई, पता चला कि उन्हें काला ज्वार हो गया था , समय रहते इलाज की उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण अब वो हमारे बीच नहीं रही। बार-बार उनके साथ बिताया हुआ एक-एक पल दृष्टिगोचर होता रहा। चूल्हे की बुझी हुई राख पर बार-बार ललकी मां के हंसते हुए चेहरे का प्रतिबिंब सा बनकर उभरता प्रतीत होता। हर वक्त लगता कि वह कहीं गई है जल्द ही आ जाएंगी, अब बोलेंगी, अब बुलाएंगी किंतु वह हमारे बीच नहीं रही, यही वास्तविकता थी जो मन को झकझोर देती थी। आज कई सालों के बाद सहसा उनकी याद आ गई और यह भी
स्मरण हुआ कि उनके पार्थिव शरीर को जलाने के लिए उसी लकड़ी का इस्तेमाल किया गया जिसे वह स्वयं खींच कर आंगन में लाई थी।

(ललकी मां को भावपूर्ण श्रद्धांजलि)

Language: Hindi
4 Likes · 2 Comments · 505 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.

You may also like these posts

संत
संत
पंकज पाण्डेय सावर्ण्य
वाणी
वाणी
Vishnu Prasad 'panchotiya'
मतळबी मिनखं
मतळबी मिनखं
जितेन्द्र गहलोत धुम्बड़िया
रुबाइयाँ
रुबाइयाँ
आर.एस. 'प्रीतम'
Story writer.
Story writer.
Acharya Rama Nand Mandal
जबले जान रही ये जान (युगल गीत)
जबले जान रही ये जान (युगल गीत)
आकाश महेशपुरी
#शीर्षक- नर से नारायण |
#शीर्षक- नर से नारायण |
Pratibha Pandey
बनि गेलहूँ मित्र त तकैत रहू ,
बनि गेलहूँ मित्र त तकैत रहू ,
DrLakshman Jha Parimal
कुम्भ स्नान -भोजपुरी श्रंखला - अंतिम भाग - 3 - सफल नहान
कुम्भ स्नान -भोजपुरी श्रंखला - अंतिम भाग - 3 - सफल नहान
Dr. Ramesh Kumar Nirmesh
सखि आया वसंत
सखि आया वसंत
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
हैप्पी नाग पंचमी
हैप्पी नाग पंचमी
Ranjeet kumar patre
यादों के अभिलेख हैं , आँखों  के  दीवान ।
यादों के अभिलेख हैं , आँखों के दीवान ।
sushil sarna
दौरे-शुकूँ फिर से आज दिल जला गया
दौरे-शुकूँ फिर से आज दिल जला गया
देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'
यह शोर, यह घनघोर नाद ना रुकेगा,
यह शोर, यह घनघोर नाद ना रुकेगा,
Kalamkash
आँगन में एक पेड़ चाँदनी....!
आँगन में एक पेड़ चाँदनी....!
singh kunwar sarvendra vikram
आवाज दिल की
आवाज दिल की
Diwakar Mahto
*सुनते हैं नेता-अफसर, अब साँठगाँठ से खाते हैं 【हिंदी गजल/गीत
*सुनते हैं नेता-अफसर, अब साँठगाँठ से खाते हैं 【हिंदी गजल/गीत
Ravi Prakash
अदालत में क्रन्तिकारी मदनलाल धींगरा की सिंह-गर्जना
अदालत में क्रन्तिकारी मदनलाल धींगरा की सिंह-गर्जना
कवि रमेशराज
बदलते दौर में......
बदलते दौर में......
Dr. Akhilesh Baghel "Akhil"
*मेरी कविता की कहानी*
*मेरी कविता की कहानी*
Krishna Manshi (Manju Lata Mersa)
माँ की आँखों में पिता
माँ की आँखों में पिता
Dr MusafiR BaithA
घनाक्षरी गीत...
घनाक्षरी गीत...
डॉ.सीमा अग्रवाल
प्रेम का घनत्व
प्रेम का घनत्व
Rambali Mishra
है सच्ची हुकूमत दिल की सियासत पर,
है सच्ची हुकूमत दिल की सियासत पर,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
मेरी कलम से…
मेरी कलम से…
Anand Kumar
"उसकी कैसी जगत-हंसाई?
*प्रणय प्रभात*
मेरे हृदय की संवेदना
मेरे हृदय की संवेदना
Suman (Aditi Angel 🧚🏻)
ग़ज़ल
ग़ज़ल
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
एक कुंडलिया
एक कुंडलिया
SHAMA PARVEEN
अन्ना जी के प्रोडक्ट्स की चर्चा,अब हो रही है गली-गली
अन्ना जी के प्रोडक्ट्स की चर्चा,अब हो रही है गली-गली
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
Loading...