मेरा घर अब मुझे मकान सा लगता है

मेरा घर अब मुझे मकान सा लगता है
ये शहर,
फिर से अनजान सा लगता है
और फिर यू ही एक रोज किसी गाड़ी की
खिड़की से दिखने वाले
अनजान चेहरे के बीच
वो एक हसीन मुखड़े के लिए
मेरी रूह तरस्ती है
दिल का क्या कहे जनाब
कमबख्त तो ये आंखें हैं
जो उसके ख्याल से बरसती हैं
पर अब तो उस राह से वो शक्स गुज़रता भी नहीं
तो अब किस उम्मीद पर खिड़की से झाँके कोई?
-दूर्वा